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४३० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय
असंयतसम्यग्दृष्टि नामक चौथे गुणस्थान की प्राप्ति कहते हैं. मिथ्यादृष्टि जीव आत्मसाक्षात्कार के होते ही प्रथम गुणस्थान से एक दम ऊँचा उठकर चतुर्थ गुणस्थानवर्ती बन जाता है. मिथ्यादष्टि जीव के दर्शनमोहनीय कर्म अनादिकाल से अभी तक एक मिथ्यात्व के रूप में ही चला आ रहा था. किन्तु कणलब्धि के प्रताप से उसके तीन खण्ड हो जाते हैं, जिन्हें शास्त्रीय शब्दों में क्रमशः मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति कहते हैं. जीव को प्रथम वार जो सम्यग्दर्शन होता है उसे प्रथमोपशमसम्यक्त्व कहते हैं. इसका काल अन्तर्मुहूर्तमात्र है. इस काल के समाप्त होते ही यह जीव सम्यक्त्वरूप पर्वत से नीचे गिरता है. उस काल में यदि सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का उदय आ जावे, तो वह तीसरे गुणस्थान में पहुँचता है और यदि अनन्तानुबन्धी क्रोधादि किसी कषाय का उदय आजावे, तो दूसरे गुणस्थान में पहुँचता है. तदनन्तर मिथ्यात्वकर्म का उदय आता है और यह जीव पुनः मिथ्यादृष्टि बन जाता है अर्थात् पहले गुणस्थान में आ जाता है. इस सब के कहने का सार यह है कि दूसरे और तीसरे गुणस्थान जीव के उत्थान काल में नहीं होते, किन्तु पतनकाल में ही होते हैं. (२) सासदनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान : जैसा कि ऊपर बतलाया गया है, इस गुणस्थान की प्राप्ति जीव को सम्यक्त्वदशा से पतित होते समय होती है. सासादन का अर्थ सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन की विराधना है. सम्यग्दर्शन के विराधक जीव को सासादनसम्यग्दृष्टि कहते हैं. इसे सास्वादन सम्यग्दृष्टि भी कहते हैं. जैसे कोई जीव मीठी खीर को खावे और तत्काल ही यदि उसे वमन हो जाय, तो वमन करते हुए भी वह खीर की मिठास का अनुभव करता है. इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव जब कर्मोदय की तीव्रता से सम्यक्त्व का वमन करता है, तो उस वमन काल में भी उसे सम्यग्दर्शनकाल भावी आत्मविशुद्धि का आभास होता रहता है किन्तु जैसे किसी ऊंचे स्थान से गिरने वाले व्यक्ति का आकाश में अधर रहना अधिक काल तक सम्भव नहीं है, इसी प्रकार सम्यग्दर्शन से गिरते हुए यह जीव दूसरे गुणस्थान में एक समय से लगाकर ६ आवली काल तक अधिक से अधिक रहता है. तत्पश्चात् नियम से मिथ्यात्व कर्म का उदय आता है और जीव पहले गुणस्थान में जा पहुँचता है. काल के सब से सूक्ष्म अंश को समय कहते हैं और असंख्यात समय की एक आवली होती है. यह छह आवलीप्रमाण काल भी एक मिनट से बहुत छोटा होता है. (३) सम्यग्मिथ्यादृष्टि : चौथे गुणस्थान की असंयत सम्यग्दृष्टि दशा में रहते हुए जीव के जब मोहनीय कर्म की सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति का उदय आता है, तो यह जीव चौथे गुणस्थान से गिरकर तीसरे गुणस्थान में आ जाता है. सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से तीसरे गुणस्थानवी जीव के परिणाम न तो शुद्ध सम्यक्त्वरूप ही होते हैं और न शुद्ध मिथ्यात्वरूप ही होते हैं. किन्तु उभयात्मक (मिश्ररूप) होते हैं. जैसे दही और चीनी का मिला हुआ स्वाद न तो केवल दही रूप खट्टा ही अनुभव में आता है और न चीनी रूप मीठा ही. किन्तु दोनों का मिला हुआ खट-मिट्टारूप एक तीसरी ही जाति का स्वाद आता है. इसी प्रकार तीसरे गुणस्थानवी जीव के परिणाम न तो यथार्थ रूप ही रहते हैं और न अयथार्थरूप ही. किन्तु यथार्थ-अयथार्थ के सम्मिश्रित परिणाम होते हैं. इस गुणस्थान का काल भी अधिक से अधिक एक अन्तम हुर्त ही है. मुहूर्त का मतलब दो घड़ी या ४८ मिनट है. उसमें एक समय कम काल को उत्कृष्ट अन्तर्महर्त कहते हैं. एक समय अधिक आवली काल को जघन्य अन्तर्मुहूर्त कहते हैं. आगे एक-एक समय की वृद्धि करते हुए उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होने तक मध्यवर्ती काल को मध्य अन्तर्मुहूर्त कहते हैं. इस मध्यम अन्तर्मुहर्त के असंख्यात भेद होते हैं. सो इस तीसरे गुणस्थान का काल यथासंभव मध्यम अन्तर्मुहूर्त जानना चाहिए. इतना विशेष है कि इस गुणस्थान वाला जीव यदि सम्भल जावे तो तुरन्त चढ़ कर चौथे गुणस्थान में पहुँच सकता है, अन्यथा नीचे के गुणस्थानों में उसका पतन निश्चत ही है.. (४) असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान : जैसा कि पहले बतलाया गया है, जीव को यथार्थदृष्टि प्राप्त होते ही चौथा गुणस्थान प्राप्त हो जाता है. यह यथार्थ दृष्टि-जिसे कि सम्यग्दर्शन कहते हैं-तीन प्रकार की होती है-औपथमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक. दर्शनमोहनीय की मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन तीन प्रकृतियों तथा चारित्र मोहनीय कर्म की अनन्तातुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार प्रकृतियाँ, इस प्रकार सात प्रकृतियों के उपशम
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