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डा० भुवनेश्वरनाथ मिश्र, माधव : धर्म का वास्तविक स्वरूप : ४२७
के लिए मत करो. विद्वानों ने, संतों ने, और सदा रागद्वेष से मुक्त वीतराग पुरुषों ने जिसका सेवन किया है और जिसे हृदय ने मान लिया है वही धर्म है, उसे जानो. करोड़ों ग्रंथों में जो कहा गया है उसे मैं आधे श्लोक में कहूंगा : दूसरों का भला करने से पुण्य होता है और बुरा करने से पाप. गोस्वामी तुलसीदासजी इसी को कहते हैं :
परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई । सूर्य, चन्द्र, वायु, अग्नि, आकाश, पृथ्वी, जल, हृदय, यम, दिन और रात सांझ और सबेरा और स्वयं धर्म मनुष्य के आचरण को जानते हैं, यानी मनुष्य अपना कार्य विचार या कर्म इन से छिपा नहीं सकता. 'धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहाया' का उद्घाटन ऋषियों ने, संतों ने, मुनियों ने अपने अनुभूत आचरण और आचरित अनुभय के आधार पर यत्र तत्र किया है. मनु ने चारों वर्गों के लिए बहुत ही संक्षेप में धर्माचरण का संकेत किया है :
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः ,
एतं सामासिक धर्म चातुर्वण्येऽब्रवीन्मनुः । हिंसा न करना, सत्य बोलना, चोरी न करना, पवित्रता का पालन करना, इन्द्रियों पर काबू रखना--मनुने चारों वर्ण के लिये थोड़े में यह धर्म कहा है. अहिंसा का अर्थ केवल 'सिंसा न करना' ही नहीं है. उसका वास्तविक अर्थ है'आत्मवत्सर्थभूतेषु." इसी प्रकार सत्यं का अर्थ केवल सच बोलने तक ही सीमित नहीं, उसका अर्थ है सचित्आनन्द स्वरूप परमात्मा में स्थित होकर आचरण करना. इसी प्रकार अस्तेय, शौच और इन्द्रियनिग्रह भी व्यापक अर्थों में व्यवहृत हुये हैं. परन्तु इन शब्दों का जो सामान्य भाव है उसी का अनुसरण करने पर विशिष्ट भावलोक के द्वार उन्मुक्त होंगे जहां धर्म से वस्तुतः साक्षात्कार होगा. जो ज्ञानी और तत्त्वदर्शी हैं उनके चरणों में आदर और भक्ति पूर्वक साष्टांग पणिपात द्वारा, उनकी अहैतुकी सेवा में अपने को लीनकर के तथा अत्यन्त विनम्रतापूर्वक जिज्ञासुभाव से उनसे परिप्रश्न करके धर्म का तत्त्व जाना जा सकता है. ऐसा गीता उपदेश करती है :
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ,
उपदेच्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः । श्वेम्बर उपनिषद् में ईश्वरीय शक्ति से अनुप्राणित महर्षि ने विश्व के सामने खड़े होकर उसी अमर सन्देश की घोषणा की:
शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः, अाये धामानि दिव्यानि तस्थुः । वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम्, आदित्यवर्ण तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति, नान्यः पंथा विद्यतेऽयनाय । हे अमृतपुत्र ! अनादि पुरातन पुरुष को पहचानना ही अज्ञान एवं माया से परे जाना है. केवल उस पुरुष को जानकर ही लोग ज्ञानी बन सकते हैं, मृत्यु के चक्कर से छूट सकते हैं और कोई मार्ग है नहीं. यह निर्मल ज्ञान ही धर्म की आत्मा है. सच तो यह कि संसार में ज्ञान के सदृश पवित्र करने वाला तत्त्व निःसन्देह कुछ भी नहीं है, छान्दोग्य उपनिषद् में इसी सत्य का समर्थन है : 'सच एषोणिमा एतात्म्य मिदं सर्वं तत्सत्यं स आत्मा तत्वमसि श्वेत केतो इति.' अपनी आत्मा को जानना पहचानना और उसी में स्थित होकर आचरण करना-'स्वस्य च प्रियमात्मनः' यही धर्माचरण का केन्द्र-बिन्दु है. कठोपनिषद् में उस पुरुष के स्वरूप के सम्बन्ध में आया है :
मयादग्निस्तपति मयात्तपति सूर्यः, मयादिन्द्रश्च वायुश्य मृत्युर्धावति पंचमः । उसी के भय से अग्नि तपती है, उसी के भय से सूर्य प्रकाश देता है—उसी के भय से इन्द्र और वायु अपना काम करते हैं और उसी के भय से मृत्यु भी भयभीत है. इस प्रकार धर्म की आत्मा का जब साक्षात्कार हो जाता है तो सभी विभिन्न धर्मों, मतों, पंथों, सम्प्रदायों में उसी एक
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