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मुनि श्रीमिश्रीमल 'मधुकर' : जीवन-वृत्त : १७
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नाम की क्षुधा से परिमुक्त : गोस्वामी तुलसीदास ने, मानवमन की दुर्बलता का कितना सुन्दर सजीव व्यक्ती करण किया था :
___ 'कंचन तजिबो सहज है, सहज त्रिया को नेह, मान बड़ाई ईर्षा, तुलसी दुर्लभ एह !' मनुष्य घर से, परिजनों के दर से, अपने तन से, राग की केन्द्र-बिन्दु नारी से, धन से और सौन्दर्याधार कञ्चन से सम्बन्ध विच्छेद कर सकता है, इनसे ममत्व मेट सकता है, परन्तु यश, सम्मान और प्रतिष्ठा से ममत्व नहीं तोड़ सकता. इसे जैन परिभाषा में 'एषणा' कहा जाता है. इसका घनत्व प्रायः मुनिसूचक परिधान पहनने पर और भी घनीभूत हो जाता है परन्तु स्वामीजी महाराज इसके स्पष्टत: अपवाद थे. इसकी अभिव्यक्ति यह लेखनी ही नहीं कर रही है, पूरा जैन समाज ही, उन्हें इसी रूपमें पहचानता था, जानता है. उनका मन, मंगल आचरण, साधना, भावना सभी कुछ तो सुन्दर था. फिर भी विश्वास किया जाता है कि उनका सर्वोपरि एक गुण था. उसमें उनके सम्पूर्ण सन्तोचित गुण गभित हो जाते हैं. वह यह कि महामना मुनि श्रीहजारीमलजी महाराज ने अपने आपको सदैव सीमित रखा था. कर्म करने में उनका विश्वास था. उसका प्रकटीकरण उन्हें इष्ट न था. जप करना, तप करना, प्रवचन करना, लोकोपकार के अन्य अनेकविध कर्म करना ये सब उनकी आत्मा के सरगम थे. पर इन सब का हृदय था-'इनका प्रकट न होना.' उनके योगनिष्ठ मन को आत्म-प्रकाशन कतई पसन्द न था. वे अपने अंतर्मन के अमर विश्वास को सक्षम कलाकार के इन शब्दों में प्रकट करते थे
केवल यश से कर्म नहीं नापा जाता है. मेरा मन तो एक माप का ही ज्ञाता है, कौन कोष संस्कृति का कितना भर पाता है, सागर-तल के सदृश कर्म के प्रति आस्था है ! फल की इच्छा तट पर रोती हुई लहर है,
हार-जीत तो नश्वर केवल कर्म अमर हैं ! सच यह कि उन्हें नाम की कभी भूख पैदा ही नहीं हुई थी. यह केवल बात ही बात नहीं है. जब भी उन्हें यह पता लगता-'मेरा नाम प्रचारित हो रहा है, लोग मुझे जान रहे हैं, तो वे तत्काल उस नगर या ग्राम को छोड़कर अगले ग्राम या नगर में चल दिया करते थे. उनकी इस वृत्ति से लगता है कि वे मन के भी पूर्ण साधु थे. वे जो कुछ करते या करना चाहते थे, वह सब कुछ 'स्वांतःसुखाय' ही करते थे. इस प्रकार वे परिचय, प्रदर्शन और प्रचार के सभी अवसरों से दूर रहा करते थे. उनके हृदयकमल की किसी भी पुष्पपंखुरी पर यह कामना प्रवेश नहीं कर पाई थी कि 'लोग मुझे जानें ! मेरा नाम हो !! मेरी ख्याति हो !!!'
तोड़ चलो चट्टान, कगारों को भी ढहने दो यहीं मत रहने दो !! श्वासों पर विश्वास चला है, कर्मों पर इतिहास चला है, छाया पर श्राभास चला है, संयम पर संन्यास चला है,
सुनो पुकार लक्ष्य की, जग जो कहता कहने दो यहीं मत रहने दो !! कवि अपनी कम, जग की अधिक कहता है. इसलिए वह समाज का प्रतिनिधि है. 'संन्यास की सफलता गोपन में है. इसके अभाव में संयम सधता नहीं. संयम के अभाव में संन्यास मर जाता है. आत्मा विलुप्त हो जाती है. शरीर रह जाता है. स्वामीजी महाराज के इन्हीं विचारों में से दो प्रकाशदीप प्रज्वलित हुए थे. एक दिन उन्होंने कहा था
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