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डा० कन्हैयालाल सहल ; नियति का स्वरूप : ४१७
हुई. जैसा और जितना हमने इसे भरा, वैसा और उतना ही यह सुरक्षित है. पकाने वाले को पका पदार्थ फिर आ मिलता है अर्थात् कर्म-फल से छुटकारा नहीं मिलता. शैवागमों द्वारा किया गया नियति का निरूपण भी इस प्रसंग में उल्लेखनीय है. नियति शैवागम दर्शन का एक विशिष्ट शब्द है जो उस तत्त्व के अर्थ में प्रयुक्त होता है जिसके कारण प्रत्येक वस्तु की कारिका शक्ति नियत रहती है. 'नियतिनियोजनां धत्ते विशिष्ट कार्यमण्डले.' नियति के कारण ही सरसों के बीज से सरसों का अंकुर फूटता है और अग्नि में केवल जलाने की शक्ति है, नियति के कारण ही पवन में जल को आन्दोलित करने की क्षमता पाई जाती है. बहुत से नियतिवादियों का तो कहना यह है कि संसार में जो आपाततः आकस्मिक और आश्चर्यमयी घटनाएँ घटित होती हुई दिखलाई पड़ती हैं, वे वस्तुतः न आकस्मिक होती हैं और न आश्चर्यमयी. आकस्मिकता और आश्चर्य की सत्ता तो उन लोगों के लिये है जो नियति के रहस्य को हृदयंगम नहीं कर पाते. नियति यदि विश्व की नियामिका शक्ति है, यदि यह कर्म-चक्र की संचालिका है, यदि नियति की प्रेरणा से ही यह गोलक, कर्म-चक्र की भांति घूम रहा है तो अवश्य ही यह सब किसी विधान के अन्तर्गत होता होगा. किन्तु इसके विपरीत एक विचारधारा ऐसी भी है जो भाग्य को अन्धा मान कर चलती है. योरोपीय देशों के लोगों का विश्वास था कि कोई ऐसी शक्ति अवश्य है जो मनुष्य के जन्म के समय ही उसके संपूर्ण जीवन की गतिविधि निश्चित कर हमेशा के लिये उसके भाग्य का निपटारा कर देती है. भाग्य, वह अवश्यंभावी दैवी विधान है जिसके अनुसार प्रत्येक पदार्थ और विशेषतः मनुष्य के सब कार्य-उन्नति, अवनति, नाश आदि पहले से ही निश्चित रहते हैं और जिससे अन्यथा कुछ हो ही नहीं सकता. अशिक्षितों में से अधिकांश लोगों का यही विश्वास रहता है कि संसार में जो कुछ होता है, वह सदा भाग्य से ही होता है और उस पर मनुष्य का कोई अधिकार नहीं होता. साधारणत: शरीर में भाग्य का स्थान ललाट माना जाता है. बहुत-से लोग यह मानते हैं कि छठी के दिन भाग्य की देवी शिशु के ललाट पर भाग्य का अंकन कर जाती है जिसमें न राई घटती है, न तिल बढ़ता है. सामान्य लोगों की दृष्टि में भाग्य अन्धा है और उसके द्वारा नियोजित कार्य-व्यापार में कारण-कार्य की कोई शृंखला नहीं दिखलाई पड़ती. ग्रीस देश के दुःखान्त नाटकों में भी किस्मत की जो कल्पना की गई है, उसके अनुसार वह एक ऐसी निरपेक्ष शक्ति है जिसके अनुशासन को सभी स्वीकार करते हैं किन्तु स्वयं वह किसी भी प्रकार के प्राकृतिक अथवा नैतिक विधान को मानकर नहीं चलती. स्व० डॉ० अन्सारी किसी रोगी की चिकित्सा के सिलसिले में रेल द्वारा यात्रा कर रहे थे. डॉक्टर साहब उन महाभागों में से थे, जो गांधीजी की भयंकर-से-भयंकर बीमारीकी खबर सुनते ही महात्माजी को सूचित किया करते थे कि मैं आपको मृत्यु के मुख से छुड़ा लाऊँगा किन्तु उन्हीं डॉक्टर अन्सारी को रेल के डिब्बे में ही जब हृद्रोग ने आ दबाया तो कहने लगे-'मैं मृत्यु के पद-चापों की निकटतम आती हुई ध्वनि को सुन रहा हूँ. चाहता हूं कि कभी विधि के विधान में कुछ दिवस अपने लिये और सुरक्षित करवा लूं किन्तु कोई उपाय नहीं, कोई चारा नहीं. वे ही डॉक्टर साहब, जो किसी दूसरे को मृत्यु के भीषण मुख से निकालने जा रहे थे, स्वयं कराल काल के गर्भ में समा गये. डाण्टे के 'इन्फनों' तथा 'होमर' के 'ईलियड' और 'ओडीसी' से लेकर आधुनिक युग तक के लेखकों ने भवितव्यता की प्रबलता को स्वीकार किया है. किन्तु जो भवितव्य है, वह क्या पहले से नियत है? क्या वह किसी कारण-कार्य-परम्परा का अनुसरण करता है अथवा उनका सारा कार्य व्यापार अन्धवत्-प्रवृत्त होता है ? इस प्रकार के अनेक प्रश्न भवितव्यता के सम्बन्ध में हमारे मन में उठे बिना नहीं रहते. दुनिया के मनीषियों ने इस विषय पर भिन्न-भिन्न विचार प्रकट किये हैं. चीन की एक कहावत में कहा गया है कि बीमारी का इलाज हो जाता है, किन्तु भाग्य का नहीं. अनेक बार ऐसा हुआ है कि भाग्य से बचने के लिये किसी ने जिस मार्ग का अनुसरण किया, उसी मार्ग में वह अपने दुर्भाग्य का शिकार हो गया. इस सम्बन्ध में राबर्ट साऊदे का निम्नलिखित कथन उल्लेख्य है
AAVAN
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