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जैनेन्द्रकुमार : अपरिग्रह : ४०७ कि विभुता और भी बढ़ी-चढ़ी है. और उनका अन्तरंग इस विभूति-भाव से सर्वथा प्रकाशित और वस्तुनिरपेक्ष है. हम जब अपरिग्रह को वस्तु के परिमाण के हिसाब से नापते हैं तो कहना चाहिए कि आत्मा का मूल्य वस्तु की अपेक्षा में आंकते हैं. पांच लाख का किसी ने मकान छोड़ा तो मानो पांच लाख अंकों की अपरिग्रहता प्राप्त कर ली. अपरिग्रह की इस आंकिक उपलब्धि के लिये जो वस्तु का त्याग जाहिर किया जाता है, हो सकता है वह अन्दर से यश-प्रतिष्ठा के परिग्रह का लोभ ही हो. वस्तु से जब हम अहम् भाव से जुड़े होते हैं तभी हम उसके वर्जन और त्यजन की भाषा में बात किया करते हैं. वस्तु के साथ सम्बन्ध मिथ्या-दष्टि का न हो, यदि सम्यक-दृष्टि का हो जाये तो वर्जन-तर्जन की दोनों भाषाएं एक-सी विसंगत हो जायेगी. मुक्ति में भी कहीं त्याग की संगति रह जाती है ? सीढी के हर डण्डे को छोड़ना पड़ता है, जब तक सीड़ी है. छत पर आगए तब छोड़ने को रह क्या जायेगा ? प्रश्न- कैवल्य प्राप्त होने के पश्चात् महाबीर ने तीर्थ की स्थापना कर प्रवृत्ति कर्म का परिचय दिया था. जब पूर्णत्व प्राप्त हो गया तब प्रवृत्ति की आवश्कता उन्हें क्यों पड़ी ? समाज सुधार के अन्य प्रयत्न वे अपने साधनाकाल के साड़े बारह वर्षों में भी कर सकते थे. तीर्थकरत्व प्राप्त होने के पश्चात् वे प्रवृत्ति के प्रपंच में क्यों पड़े? यदि निवृत्तिके पश्चात् प्रवृत्ति का क्रम हो तो राजकुमार वर्द्धमान ही क्या, प्रत्येक मनुष्य का कर्म प्रवृत्ति में है ही. पहले निवृत्ति और फिर प्रवृत्ति; इससे अच्छा तो यही न है कि वह जो प्रवृत्ति करता है, करता चला जाये, क्योंकि निवृत्ति-साधना कर लेने के पश्चात् भी अन्तत: प्रत्येक साधक को प्रवृत्ति करनी पड़ती है इससे अच्छा तो यही है कि वह निवृत्ति के शून्यवाद में ही न भटके. उत्तर--निवृत्ति-प्रवृत्ति के शब्दों की जोड़ी को आप अपने लिये वृथा झमेला न बनायें. निवृत्ति जिसके अंतरंग में नहीं वह प्रवृत्ति उतनी ही चंचल और निष्फल होती है. मैं इन दोनों शब्दों को परस्पर विरोध में नहीं देखता हूं, पहले पीले की भाषा भी मुझे कुछ विशेष संगत मालूम नहीं होती है. बाद में यदि प्रवृत्ति आ गई हो तो शुरू में ही निवृत्ति क्यों ? यह आपका प्रश्न इस भ्रम में से बनता है कि ये दोनों परस्पर को काटने वाली संज्ञायें हैं और एक समय में एक ही हो सकती है. वस्तुतः ऐसा नहीं है. दुख की अनुभूति सब में है. इस अनुभूति को निवृत्तिपरक माना जायेगा. अब इसी व्यथानुभूति में से प्रवृत्ति निकलती है. जितनी वह अपने निवृत्तिस्रोत से संयुक्त होगी उतनी ही वह प्रवृत्ति फलदायक होगी. निवृत्तिमय प्रवृत्ति मुक्तिदायक हो सकती है, और जितना उनमें वैमुख्य और वैपरीत्य होगा उतनी ही बंधनकारक. अपरिग्रही, अहिंसक, अनासक्त कर्म-संयुक्त होता है. जो जितना वियुक्त है, अर्थात् आत्मव्यथा के स्वीकार में से नहीं बल्कि अहंकृत इंकार में से निकलता है वह उतना ही आसक्त ह्रस्व और व्यर्थ होता जाता है.. तीर्थकर की प्रवृत्ति शायद फल न लाती अगर उन्हें अन्तरंग में निवृत्ति ही सिद्ध न हुई होती. यज्ञ-हिंसा के विरोध में कहीं उनका अहंभाव मिला होता तो क्या उसका उतना फल आ सकता था? भीतर से निवृत्त हो गये, शुद्ध करुणा की प्रेरणा में से शब्द और कर्म उत्कृष्ट हुए इसी से परिणाम भी आसका होगा अन्यथा ऊपर से की जाने वाली प्रवृत्ति केवल अस्थिरता का दूसरा रूप हो जाता है. उसमें तेजस्विता और अमोघता नहीं आती. प्रश्न-परार्थमूलक प्रवृत्ति का अर्थ क्या है ? परार्थमूलक प्रवृत्ति के द्वारा यदि उद्देश्य की उपलब्धि होती है तो वह भी एक स्वार्थ-प्रवृत्ति है. स्वार्थमूलक प्रवृत्ति यदि एकान्त प्रवृत्ति है तो जब वह परार्थ के लिये होती है तब निवृत्तिमूलक कैसे हो जाती है ? उत्तर-अब आप स्व-पर शब्द की जोड़ी के चक्कर में पड़ गये. व्यथा में 'स्व' की सीमा धुल जाती है. इसलिये उस सृजनकर्म से स्व-पर का अभेद सिद्ध होता है. करुणा मूलक और अहम् मूलक प्रवृत्ति में यही अन्तर है. करुणामूलक कर्म में उपकार, उद्धार या रक्षा की दृष्टि अर्थात्-परार्थ-दृष्टि उतनी नहीं होती. स्वार्थ परार्थ के आगे मैं तीसरा शब्द सुझाता हूँ—परमार्थ यहाँ पर भेद मिट जाता है और स्वार्थ-परार्थ का परमार्थ में समन्वय हो जाता है. स्वार्थ अहंकृत होता है, उसी तरह परार्थ भी अहंकृत हुआ करता है. उपकार अधिकांश उसी भूल के कारण अंत में अपकार बन जाता है. जो चाहिए वह अकर्म है, अर्थात् ऐसा कर्म जिसमें कर्तृत्व न हो. उसी को दूसरे शब्दों में निवृत्ति-मूलक कर्न कह दीजिए. कर्मनिर्जरा कर्महीनता में से नहीं वरन् प्रचण्ड पुरुषार्थ में से ही फलित हो सकती है.
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