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श्रीजैनेन्द्रकुमार प्रश्नोत्तर : अपरिग्रह
प्रश्नकार-कुमार सत्यदर्शी
प्रश्न-आपकी परिभाषा के अनुसार परिग्रह क्या है ? उत्तर—जो हमारी अन्तश्चेतना को पकड़े और रोके, उस वस्तु रूप बाधा को परिग्रह कह सकते हैं. प्र०- अन्तश्चेतना आप किसे कहते है ? उ०—आदमी निश्चेतन तो है नहीं, और यदि चेतन है तो उसके चैतन्य का अधिष्ठान उससे बाहर कैसे माना जा सकता है ? 'अन्तश्चेतना' इसलिए कहा है कि चेतना के अनेक स्तर होते हैं. अपने ही स्रोत से स्फूर्त हो, प्रतिक्रियात्मक न हो, इसलिए 'अन्तस्' का विशेषण है. प्र०-क्या आप बाह्य और आन्तरिक परिग्रह के भेद भी मानते हैं ? उ०-भाव और द्रव्य का भेद मानने से समझ को सुभीता होता है. पर सार सदा आन्तरिक है. अर्थात् परिग्रह को मूर्छाभाव में मानना अधिक सार्थक होगा. प्र०-गृह-परिवार में रहकर भी आप अपने को मूर्छा-स्वरूप परिग्रह से रहित मानते हैं ? उ०-नहीं. मैं अपरिग्रह का विश्वासी हूँ, अपरिग्रही पूरा नहीं. लेकिन यह इस मकान के निमित्त से नहीं. जंगल में बैठा रहूं तो भी अन्दर से तृष्णात हुआ तो जंगल मेरी मदद नहीं कर पायेगा. पशु तो वहाँ ही रहता है, क्या वह अपरिग्रही है ? प्र०-अपरिग्रही होने के लिए वस्तु का त्याग अपेक्षित नहीं है, तो अतीत में जो ऋषि-मुनि हुए हैं, उन्होंने जागतिक वस्तुओं से नाता तोड़ कर एकान्त में रहना पसन्द किया था, क्या उनके लिए ऐसा करना अनिवार्य नहीं था ? उ०-त्याग-तपस्या में बाहुबली की कौन समता कर सकता है ? लेकिन मुक्ति उन्हें नहीं मिली, जब तक अन्दर में शल्य बनी रही. वस्तु का नितान्त परिहार हो नहीं सकता. वस्तु अपनी जगह है, उसका नाश संभव नहीं . वस्तु से अगर हम अपने को बचाते हैं तो आखिर किस लिए ? इसीलिए न कि वस्तु हम पर हावी न हो. और हमारी आत्मता को न ढंके इस कोण से देखें तो वस्तु को लेने अथवा छोड़ देने, इन दोनों ही दृष्टियों में वस्तु को प्रधानता मिल जाती है. इसलिए त्याग-तपस्या में अपने आप में कोई मुक्ति समाविष्ट नहीं है. वस्तु की निर्भरता से ऊपर उठने की दृष्टि से अमुक साधना या अभ्यास किया जा सकता है. लेकिन अभ्यास साधना है, साध्य नहीं है. अपरिग्रह का नितान्त शुद्ध रूप है कैवल्य. कैवल्य की स्थिति पर तीर्थकर के लिए समवमरण की रचना हो जाती है. समवसरण के ऐश्वर्य का क्या ठिकाना है ! लेकिन क्या उससे तीर्थंकर के कैवल्य में कोई त्रुटि पड़ती है ? या अपरिग्रह पर कोई विकार आता है ? व्यक्ति और वस्तु के बीच सर्वथा असम्बद्धता नहीं हो सकती. सारा जगत् सामने पड़ा है, क्या अपरिग्रही उसको देखने से इंकार करेगा? देखना भी एक प्रकार का सम्बन्ध है. दृष्टि सम्यक् वह नहीं हैं. जो वस्तु-मय जगत् को देख
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