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१४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : प्रथम अध्याय
किया. 'मेरी आकांक्षा है कि प्राकृत व्याकरण का भी अध्ययन करूँ. हमारा समस्त जैन आगम तथा विपुल व्याख्याग्रंथ चूर्णियाँ आदि प्राकृत भाषा में अंकित हैं. अतः मुझे प्राकृत व्याकरण के अध्ययन की अनुमति का अनुग्रह प्रदान करें. गुरुदेव ने सरस्वतीपुत्र आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के अध्ययन की व्यवस्था की. प्राकृत व्याकरण के अध्ययन की जिज्ञासा शिष्य की स्वयं उत्पन्न जिज्ञासा थी अतः गुरु की सुव्यवस्था प्राप्त होते ही शिष्यने स्वल्प समय में प्राकृत व्याकरण पर सांगोपांग अधिकार प्राप्त कर लिया. संस्कृत और प्राकृत का अध्ययन कर चुकने पर उनका मन प्रांतीय भाषाओं की ओर स्वाभावतः ही ढला. प्रांतीय भाषाओं- गुजराती, ब्रज और राजस्थानी का ज्ञान घूमते व पद विहार करते हुए जन-साधारण से नैतिकता एवं सदाचार सम्बन्धी वार्तालाप करते-करते किया था. इन भाषाओं का व्याकरण उन्होंने नहीं पढ़ा था अतः प्रांतीय भाषाओं के उनके ज्ञान को हम प्रांतीय बोलियों का ज्ञान कह सकते हैं.
राजस्थानी भाषा तो उनकी अपनी मातृभाषा ही थी परन्तु राजस्थान की राजस्थानी भाषा भी मेवाड़ी, जयपुरी, अलवरी, मेवाती, ढूंढारी, बीकानेरी, बाड़मेरी व सांचोर जालोरी आदि के सीमागत टुकड़ों में बँटी हुई है अत: उन्होंने राजस्थान की भिन्न टुकड़ियों की भाषा के शब्दोच्चारण एवं लहजों (ट्यून) पर ध्यान देकर राजस्थानी भाषा का ज्ञान पुष्ट किया.
'प्रांतों देशों और अन्य राष्ट्रों की भाषा का ज्ञान प्राप्त करना भी सरस्वती के ज्ञान भंडार का अंश है, इस सत्य पर विश्वास लाकर आंग्ल और बंगाली भाषा का भी ज्ञान प्राप्त किया किन्तु बहुभाषाविज्ञ होने का दावा उन्होंने नहीं किया- अपने जीवन में, कभी '.
गौरवशाली नागौर-नगर :
नगीना, नागपुर, नागसर, अहीपुर आदि विभिन्न नामों से नागौर को अतीत में अभिहित किया जाता रहा है. नागौर अनेक दृष्टिसे अपनी विशिष्टता रखता है. जैनयतियों ने विपुल मात्रा में नागौर के सम्बन्धमें पद्य रचनाएँ की हैं. नागौर नारी सौन्दर्यके कारण तो प्रसिद्ध रहा ही है परन्तु उसका राजस्थान की राजनीति और सांस्कृतिक दृष्टि से अपना विशिष्ट मूल्य - महत्व है. इसी नागौर नगर के लिये यह कितना गौरव का विषय है कि स्वामीजी महाराज को प्रथम गुरु-दर्शन का लाभ, भागवती दीक्षा और दीक्षानन्तर प्रथम वर्षावास का सुसंयोग भी नागौर में ही हुआ.
इस प्रकार नागौर नगर निवासियों को तीन-तीन सुयोगों का सुमेल प्राप्त हुआ. एक ही नगर में तीन संयोग बने. परन्तु इससे भी चमत्कारपूर्ण एक तथ्य और जुड़नेवाला था. सं० २०१८ का वर्षावास कुचेरा ( राजस्थान) में बिता कर मुनिश्री नेपुनः पदयात्रा प्रारम्भ की तो नागौर (राजस्थान) का स्थानकवासी जैन श्रावक संघ बहुत अधिक उत्साह लेकर मुनिश्री की सेवा में आया, इस भावना से कि स्वामीजी का इस बार का वर्षावास हमारे नगर में ही हो.
तपोधन मुनिराज श्रीहजारीमलजी महाराज ने कहा : "काया ने साथ दिया तो ( सुखे समाधे सं० २०१६ का चौमासा नागौर करने के भाव हैं ) इस बार का वर्षावास आपके नगर में करूँगा. काया ने अगर साथ दिया तो, उनके इस अनिश्चयात्मक वाक्य में शायद उनकी माटी की काया का अंत होना गर्भित था. वे नागौर न जा सके. ( चांदावतों का नौखा : राजस्थान ) नामक लघुग्राम में अपने दोनों गुरुभाइयों के समक्ष ही चैत्रकृष्णा दशमी सं० २०१८ की काली रात्रि में
१. जैनमुनि का जीवन, प्रबल संयम साधना के साथ-साथ उसका अपना उपदेष्टा का भी रूप होता है. अपने जीवन के अनुभव, शास्त्रीयज्ञान के प्रकाश में उसे ऐसी जनता के समक्ष रखने पड़ते हैं जो संस्कृत और प्राकृत जैसी विद्वद्-भोग्य भाषा से अभिज्ञ रहने के कारण देश्य, भाषाओं की बोधगम्य शैली में उपस्थित करने पड़ते हैं. जैन मुनियों की औपदेशिक पद्धति केवल पांडित्य-प्रदर्शन तक ही सीमित नहीं रहती, जनोपकार की दृष्टि से उनका काम्य होता है-दर्शन की महान्तम गुत्थी सरलतम शब्दों में, तत्वज्ञान के सिद्धान्त सीधी-सादी भाषा में, जनता जाने समझे और सदाचार की ओर अधिक से अधिक प्रगतिवान हों.
२. स्वामी श्री ब्रजलालजी म० व मधुकर मुनि ।
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