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गोपीलाल अमर : दर्शन और विज्ञान के आलोक में पुद्गल द्रव्य : ३७५ संयोग का कारण
यह संयोग क्यों होता है ? इस प्रश्न के दो उत्तर हैं. जहां तक अनादि संयोग का प्रश्न है उसका कोई उत्तर नहीं. जब से जीव का अस्तित्व है तभी से उसके साथ पुद्गल परमाणुओं ( कार्मणवर्मणाओं) का संयोग भी है. जिस सुवर्ण को अभी खान से निकाला ही न गया हो उसके साथ धातु-मिट्टी आदि का संयोग कब से है, इसका कोई उत्तर नहीं. जब से सोना है तभी से उसके साथ धातु-मिट्टी आदि का संयोग भी है. यह बात दूसरी है कि सोने को उस पातु मिट्टी पादि से मुक्त किया जा सकता है, उसी तरह जीव द्रव्य भी स्वयं के पुरुषार्थ से अपने को कार्मणवर्गणा से मुक्त कर सकता है. इधर, जहाँ तक सादि संयोग का प्रश्न है, इसका उत्तर दिया जा सकता है. अनादि संयोग के वशीभूत होकर जीव नाना प्रकार का विकृत परिणमन करता है और इस परिणमन को निमित्त के रूप में पाकर पुद्गल परमाणु अपने आप ही कार्मण वर्गणा के रूप में परिवर्तित होकर तत्काल, जीव से संयुक्त हो जाते हैं.' संयोग के बनने-मिटने की यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक जीव द्रव्य स्वयमेव अपने विकृत परिणमन से मुक्त नहीं हो जाता है.
संयोग की विशेषता
जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य के संयोग की इस प्रक्रिया की यह विशेषता है कि वह संयुक्त होकर भी पृथक्-पृथक् होती है. जीव की प्रक्रिया जीव में और पुद्गल की प्रक्रिया पुद्गल में ही होती है. एक की प्रक्रिया दूसरे में कदापि सम्भव नहीं. इसी प्रकार एक की प्रक्रिया दूसरे के द्वारा भी सम्भव नहीं. जीव की प्रक्रिया जीव के ही द्वारा और पुद्गल की प्रक्रिया पुद्गल के ही द्वारा सम्पन्न होती रहती है. लेकिन इन दोनों प्रक्रियाओं में ऐसी कुछ समता, एकरूपता रहती है कि जीव द्रव्य कभी पुद्गल की प्रक्रिया को अपनी और कभी अपनी प्रक्रिया को पुद्गल की मान बैठता है: जीव की यही भ्रान्त मान्यता मिथ्यात्व, मोह या अज्ञान कहलाती है.
संयोग से प्रसव आदि तत्त्वों की सृष्टि
जीव और पुद्गल की इस संयोग-प्रक्रिया के फलस्वरूप ही जीव (Souls ) और अजीव ( Nonsouls, eg. matters & Energies etc.) पुद्गल आदि के अतिरिक्त शेष पाँच तत्त्वों की सृष्टि होती है. जैन दर्शन में स्वीकृत सात तत्त्व ( principles) ये हैं. 3
(१) जीव Soul, a substence ( २ ) अजीब (२) आसव (४) बन्ध (५) संबर (६) निर्जरा (७) और मोक्ष प्रास्त्र - जीव से पुद्गल द्रव्य के संयोग का मूल कारण है जीव की मनसा, वाचा और कर्मणा होनेवाली विकृत परिणति और इसी विकृत परिणति का नाम आस्रव तत्त्व है.
बन्ध-आस्रव तत्त्व के परिणामस्वरूप जीव द्रव्य से पुद्गल द्रव्य का संयोग होता है, लोलीभाव होता है जिसे बन्ध तत्त्व कहते हैं.'
बन्ध तत्त्व के अन्तर्गत यह ध्यान देने की बात है कि पुद्गल परमाणु ( कार्मणवर्गणायें ) जीव द्रव्य में प्रविष्ट हो जाते हैं,
१. जीत्रकृतं परिणामं निमित्तमात्र प्रपद्य पुनरन्ये ।
स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन । - आचार्य अमृतचन्द्र पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, श्लो० १२. २. एवमयं कर्मकृतैर्भावै रसमाहितोऽपि युक्त इव ।
प्रतिभाति बालिशानां प्रतिभासः स खलु भवबीजम् । वही, श्लो० १४.
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३. जीवाजीवास्तव बन्ध संवर निर्जरा-मोक्षारतत्त्वम् ! आचार्य उमास्वामी तत्त्वार्थसूत्र, अ० १ सूत्र ४.
४. कायवाङ्मनःकर्म योगः । बही, अ० ६, सू० १.
५. स आस्रवः । वही, ५० ६. सू० ४.
६. सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः । वही, अ० ७, सू० २.
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