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इन्द्रचन्द्र शास्त्री : जैन दर्शन ३६७
है, उनके जीवन में प्रवृत्ति और निवृत्ति का समन्वय होता है. छठे से लेकर दसवें तक पांच गुणस्थान निवृत्तिप्रधान मुनि की भूमिकाओं को प्रकट करते हैं, जो कषायों को क्षीण करता हुआ उत्तरोत्तर ऊपर चढ़ता जाता है. ११ वां उपशांत मोहनीय है. वहाँ मोहनीय पूर्णतया दब जाता है किन्तु दूसरे ही क्षण उसका पुनः उभार आता है और साधक नीचे गिरने लगता है. १२ वाँ गुणस्थान क्षीण मोहनीय है, जो मोहनीय कर्म के पूर्णतया क्षय हो जाने पर प्राप्त होता है. तत्पश्चात् साधक ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अंतराय कर्म का भी क्षय कर डालता है और तेरहवें गुणस्थान में पहुंच जाता है. उस समय वह तराग और सर्वज्ञ कहा जाता है. कषायों का सर्वथा नाश होने पर भी योग अर्थात् मन वचन और काय की हलचल बनी रहती है. चौदहवें गुणस्थान में वह भी रुक जाती है. ५ ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है साधक उतनी ही देर जीवित रहता है और शरीर का परित्याग करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है.
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