________________
श्री इन्द्र चन्द्र शास्त्री एम० ए०, पी-एच० डी० दिल्ली जैनदर्शन
'जैन' शब्द का अर्थ है जिन के अनुयायी और 'जिन' शब्द का अर्थ है जिसने राग द्वेष को जीत लिया है. उसे अर्हत् अर्थात् पूजनीय भी कहा जाता है. इसी आधार पर जैनधर्म का दूसरा नाम आर्हद्धर्म है. जैनसाधु परिग्रह या संपत्ति नहीं रखते. उनके पास ऐसी कोई वस्तु नहीं होती जिसे गांठ बांधकर रखा जाय. इसलिये वे निर्ग्रन्थ कहे जाते हैं और उनका धर्म निग्रंथ धर्म. ईस्वीपूर्व छठी शताब्दी में भारतीय संस्कृति की दो मुख्य धाराएँ थीं. एक ओर यज्ञ तथा भौतिक सुखों पर बल देने वाली ब्राह्मण परंपरा और दूसरी ओर निवृत्ति तथा मोक्ष पर बल देनेवाली श्रमण परंपरा. जैनधर्म श्रमणपरंपरा की एक प्रधान शाखा है. जैनधर्म न विकासवादी है और न ह्रासवादी. जगत्कर्ता के रूप में किसी अतीन्द्रिय सत्ता को नहीं मानता. विश्व परिवर्तनशील है. उसकी उपमा एक चक्र से दी जाती है जिसमें उन्नति और अवनति, उत्थान और पतन का क्रम निरन्तर चलता रहता है. इस क्रम को बारह आरों में विभक्त किया गया है. उत्थान को उत्सर्पिणी काल और पतन को अवसर्पिणी काल कहा जाता है. प्रत्येक में छह आरे हैं. प्रत्येक काल के मध्य में धर्म की स्थापना होती है. प्रस्तुत काल अवसर्पिणी है. इसमें सभी बातें हीयमान हैं. इसके मध्य में अर्थात् तृतीय आरे के अंत मे प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हुये. वे ही जैनधर्म की वर्तमान परंपरा के संस्थापक माने जाते हैं. उनका वर्णन भागवत तथा वैदिक साहित्य में भी आया है. ज्ञात होता है वे सर्वमान्य महापुरुष रहे होंगे. उनके समय के विषय में ऐतिहासिक दृष्टि से कुछ नहीं कहा जा सकता. ऋषभदेव के पश्चात् २३ तीर्थंकर हुये. बाईसवें नेमिनाथ भगवान् कृष्ण के चचेरे भाई थे. छांदोग्य उपनिषद् में उनका निर्देश घोर अंगिरस के रूप में आया है. तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ईस्वीपूर्व ८५० में हुये. वे वाराणसी के राजकुमार थे. अंतिम तीर्थकर भगवान् महावीर ईस्वीपूर्व ६०० में हुये. वर्तमान जैनधर्म उन्हीं की देन है. महावीर के पश्चात् एक हजार वर्ष का समय आगमयुग कहा जाता है. उस समय श्रद्धाप्रधान आगम ग्रन्थों की रचना हुई. दार्शनिक दृष्टि से उनका इतना महत्त्व है कि यत्र-तत्र विभिन्न मान्यताएँ मिलती हैं, किन्तु प्रतिपादनशैली दार्शनिक नहीं है. दर्शनयुग का प्रारम्भ ईसा की ५वीं शताब्दी में हुआ. महावीर के कुछ समय पश्चात् जैनधर्म में श्वेताम्बर और दिगम्बर दो सम्प्रदाय हो गये. दोनों ने दार्शनिक साहित्य का विकास किया. जहां तक जैन मान्यताओं का प्रश्न है उनका संग्रह करने वाला प्रथम सूत्रग्रन्थ तत्त्वार्थ सूत्र है. इसे मोक्षशास्त्र भी कहा जाता है. यह उमास्वाति या उमास्वामी (तृतीय शताब्दी) की रचना है. इस पर उनका स्वोपज्ञ भाष्य, पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि, सिद्धसेनगणी का भाष्य, अकलंक की राजवातिक, विद्यानंद की श्लोकवार्तिक तथा श्रुतसागर की आत्मख्याति नामक टीकाएं हैं. ये रचनायें आगम साहित्य में सम्मिलित की जाती हैं. कुंदकुंद ने प्रवचनसार. समयसार, नियमसार, अष्टपाहुड़ आदि अनेक ग्रंथों की रचना की. उनमें खण्डन-मण्डन न होने पर भी आत्मा, ज्ञान आदि विषयों का सूक्ष्म विवेचन है. दिगम्बर परम्परा में उन्हें आगम माना जाता है. दार्शनिक दृष्टि से भी उनका महत्त्व कम नहीं है.
Jain Education Inten
Antall anorg