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१० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : प्रथम अध्याय
'मैं इधर बहुत दिनों से यह सोच भी रही थी जिस परमें तीन-तीन पुत्र जम्मे वह पर ग्रांगन एक की किलकारी से भी नहीं गूंज रहा है. ऐसे परमें रहकर मैं भी अब क्या करूंगी? क्यों न मैं भी जिन गुरुणीजी ने जीवन को जीना सिखाया, मेरा प्रतीतकालीन शोक मेटाउनके चरणों में ही दीक्षा धारण कर अपने बेटे के पथ पर चलूं ?
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'मेरे ऐसे सोचने में क्यों न? का इन्द्र था. माज उस विकल्प को तेरे द्वारा लिखी कवि-कड़ी ने मेट दिया है. बेटा, तू खुश है न ? आज से तेरी माँ भी सबकी माँ बनने और सब में अपने हजारी के दर्शन करने की प्रतिज्ञा कर रही है. और क्या, बस ! शेष मुख !
"मेरी पूज्य माँ,
सबकी माँ बनने को उत्सुक, नन्दू के प्राशीर्वाद"
'आज का तुम्हारा पत्र पढ़ कर मेरी आत्मा का कण-कण पुलकित हो गया ! माँ मुझे तुम्हारा निश्चय पढ़कर असीम प्रसन्नता हुई है. तुम्हारा निश्चय अत्यन्त शुभ है. अब इससे तुम कभी भी पीछे की ओर मत मुड़ना ! अवश्य ही गुरुणीजी के पास भागवती दीक्षा धारण कर आत्मा का अनन्त प्रह्लाद खोजना !
'मैं आज अन्तिम बार तुम्हें मेरी पूज्य माँ का सम्बोधन कर रहा हूँ. अब तुम सब की माता बनना चाहती हो तो मैं भी, 'मेरी माँ' इस घेरे से बाहर निकलता हूँ । 'माँ, मैं तुम्हारे पवित्र निश्चय से प्रसन्न हूँ. परम प्रसन्न हूँ.'
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विश्वमाता के निश्चयाधीन, - हजारी, "
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