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कन्हैयालाल लोढा : जैनदर्शन और विज्ञान : ३३३
जैन दर्शन लोक को परिमित मानता है और अलोक को अपरिमित. लोक को छः द्रव्य रूप मानता है और अलोक केवल एक आकाश द्रव्यमय है. प्रो० अलबर्ट आइंस्टीन ने भी लोक और अलोक की भेद-रेखा खींचते हुए जो व्यक्त किया है उससे जैन दर्शन की लोकविषयक उपर्युक्त मान्यता का पूर्ण समर्थन होता है. आइंस्टीन का कथन है :--"लोक परिमित है, अलोक अपरिमित. लोक के परिमित होने के कारण द्रव्य अथवा शक्ति लोक के बाहर नहीं जा सकती. लोक के बाहर उस शक्ति (द्रव्य) का अभाव है, जो गति में सहायक होती है." जैन दर्शन ने भी अलोक में द्रव्यों के अभाव का कारण गति में सहायक धर्मास्तिकाय के अभाव को ही बताया है. कितनी आश्चर्यजनक समानता है दोनों के सिद्धान्तों में !
पुद्गल-परमाणु अजीव का पाँचवाँ भेद पुद्गल (Matter) है. विश्व के दृश्यमान संपूर्ण पदार्थ इसी के अंतर्गत आते हैं. पुद्गल वर्ण, गंध, रस व स्पर्श युक्त होता है. पुद्गल का सूक्ष्मतम अविभागी अंश 'परमाणु' कहा गया है. जैन दर्शन सोना, चांदी, शीसा, पारा, मिट्टी, लोहा, कोयला, पत्थर, भाप, गैस आदि सर्व पदार्थों को एक ही प्रकार के परमाणुओं से निर्मित मानता है. पदार्थों की भिन्नता का कारण केवल परमाणुओं के स्निग्धता और रूक्षता आदि गुणों के अंतर में निहित मानता है. उसके अनुसार परमाणु परमाणु के बीच कोई भेद नहीं है. कोई भी परमाणु कालांतर में किसी भी परमाणु रूप परिणमन कर सकता है. आधुनिक विज्ञान पहले इस तथ्य को स्वीकार नहीं करता था तथा ६२ प्रकार के मौलिक परमाणु मानता था. परन्तु अणु की रचना के आविष्कार ने सिद्ध कर दिया कि सब पदार्थों की रचना एक ही प्रकार के परमाणुओं से हुई है और इनका अन्तर केवल उनके अंहित धनाणु (Proton) और ऋणाणु (Electron) की संख्याभेद से है. यही नहीं, प्रयोगशाला में वैज्ञानिकों ने एक तत्त्व को दूसरे तत्त्व में परिवर्तित कर उक्त सिद्धान्त को व्यावहारिक सत्य प्रमाणित किया. वैज्ञानिक वैजामिन ने पारे को सोने में बदल दिया. अनेक प्रयोगशालाओं में प्लेटिनम् को सोने में बदलने के प्रयोग सफल हो चुके हैं. ठाणांग सूत्र, स्थानक २ उ० ३ में पुद्गल के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है ..... 'दुविहा पोग्गला पण्णत्ता, तंजहा परमाणुपोग्गला चेव नोपरमाणुपोग्गला चेव, अर्थात् पुद्गल के दो भेद हैं (१) परमाणु -जिसका विभाग न हो तथा (२) स्कंध-बहुत से परमाणुओं का समुदाय. अभिप्राय यह है कि परमाणुओं से स्कन्ध और स्कन्धों के समुदाय से वस्तुनिर्माण होता है. परमाणुओं से स्कन्ध का निर्माण कैसे होता है, इस विषय में पन्नवणासूत्र के त्रयोदश परिणामपद में वर्णन आया है-'गोयमा ! दुविहे परिणामे पण्णत्ते तंजहा................ समणिद्धयाए बंधो न होई, समलुक्खयाए वि ण होई, वेमायणिद्धलुक्खत्तणेणं. णिद्धस्य णिद्धेण दुयाहिएणं, लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिएणं. णिद्धस्य लुक्खेण उवेइ बंधो, जघन्नवज्जो विसमो समो वा.' यहाँ आगम में अनेक परमाणुओं में निहित स्निग्धता और रूक्षता बतलाते हुए कहा है'समान गुण वाले स्निग्ध और समान गुण वाले रूक्ष परमाणु बंध को प्राप्त नहीं होते. बंध स्निग्धता और रूक्षता की मात्रा में विषमता से होता है. दो गुण अधिक होने से स्निग्ध का स्निग्ध के साथ तथा रूक्ष का रूक्ष के साथ बंध हो जाता है. स्निग्ध का रूक्ष के साथ भी बंध हो जाता है. किन्तु जधन्य गुण वाले का विषम या सम किसी के साथ बंध नहीं होता. अर्थात् एक गुण स्निग्ध और एक गुण रूक्ष परमाणुओं में बंधन नहीं होता. जैन दर्शनिकों ने जैसे स्निग्धता और रूक्षता को बंधन का कारण माना, वैज्ञानिकों ने भी पदार्थ के धनविद्युत् और ऋणविद्युत्, इन दो स्वभावों को बंधन का कारण माना. तथा जैसे जैन दर्शन परमाणु मात्र में स्निग्धता और रूक्षता मानता है, आधुनिक विज्ञान भी पदार्थ मात्र में धनविद्युत् तथा ऋणविद्युत् मानता है. तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय ५ सूत्र ३४ की सर्वार्थसिद्धि टीका में आकाश में चमकने वाली विद्युत् की उत्पत्ति का विवेचन करते हुए कहा है'-"स्निग्धरूक्षगुण
१. डा० वी० एल० शील का कथन है कि जैन दार्शनिक इस बात से पूर्ण परिचित थे कि पोजेटिव और नेगेटिव विद्युतकणों के मिलने
से विद्युत् उत्पन्न होती है.
Jain Edation Interational,
Sopluse kaly
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