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श्री सौभाग्यमल जैन स्याद्वाद और अहिंसा
स्याद्वादो वर्तते यस्मिन, पक्षपातो न विद्यते,
नास्त्यन्यपीडनं किंचित् जैनधर्मः स उच्यते । आचार्य ने संक्षिप्त में जैन धर्म का अंतस्तल उक्त श्लोक में व्यक्त कर दिया है. वास्तव में 'स्याद्वाद और अहिंसा' जैन धर्म का प्राण है. जिस प्रकार किसी प्राणधारी के शरीर में से प्राण निकल जाने पर वह निष्प्राण हो जाता है, उसका जीवन समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार "जैनधर्म" में से उक्त दोनों महान् सिद्धान्त यदि कम minus कर दिये जावे तो उसका अस्तित्व ही नहीं रहेगा. वैसे सूक्ष्म पर्यवेक्षण करने से ज्ञात होगा कि उक्त दोनों सिद्धान्त वास्तव में एक ही हैं. स्याद्वाद में अहिंसा की भावना निहित है और अहिंसा में स्याद्वाद की. जैन दर्शन में अहिंसा का सिद्धान्त सर्वोपरि है. जैन दर्शन ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अहिंसा का प्रयोग किया है. जैन दार्शनिक विचारमंथन ने प्राणी के बधनिषेध मात्र को अहिंसा की परिपूर्णता नहीं मानी अपितु यह भी आवश्यक समझा कि मनुष्य में "बौद्धिक अहिंसा" भी जरूरी है. मनुष्य में जब तक विचार करने की क्षमता है उसके दृथिकोण में अंतर रहेगा. इसी प्रकार विश्व में प्रत्येक वस्तु अनंत धर्मात्मक है और यह भी स्वाभाविक है कि मनुष्य के सीमित ज्ञान के कारण वस्तु का भिन्न-भिन्न स्वरूप अथवा प्रश्न के समस्त पहलू एक समय ही मनुष्य के मस्तिष्क में नहीं आ सकते. इस कारण मनुष्य का किसी वस्तु अथवा प्रश्न के सम्बन्ध में अभिप्राय आंशिक सत्य ही हो सकता है. यदि मनुष्य आंशिक सत्य पर ही परस्पर विवाद करता रहे तथा स्वयं द्वारा अनुभूत सत्य (आंशिक) को ही पूर्ण सत्य होने का दावा करता रहे तो यह परिपूर्ण सत्य नहीं हो सकता. वास्तव में आंशिक सत्यों को यदि एकत्रित कर लिया जाये तो ही पूर्ण सत्य का दर्शन हो सकता है. यही स्थिति विश्व के धर्मों की विभिन्न मान्यताओं के सम्बन्ध में है. विश्व के धर्माचार्यों ने अपनी तात्कालिक परिस्थिति से प्रभावित होकर सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया था. इस कारण यह स्वाभाविक था कि देश, काल, क्षेत्र की भिन्नता के कारण उन सिद्धान्तों में वैषम्य होता और यही हुआ भी. किन्तु मनुष्य अपने धर्माचार्यों के प्रति ममता, उनके मन में व्याप्त आग्रह तथा अहंकार ने उसको उस आंशिक सत्य को पूर्ण सत्य मानने के लिए प्रेरित किया. परिणाम यह हुआ कि प्रत्येक धर्म का अनुयायी अपने द्वारा स्वीकृत आंशिक सत्य को पूर्ण सत्य, अन्तिम सत्य मानता रहा. यहां तक भी ठीक था किन्तु उसके आग्रह तथा अहंकार में वृद्धि हुई और उसने स्वयं द्वारा स्वीकृत आंशिक सत्य को दूसरे धर्मानुयायी से पूर्ण सत्य के रूप में मनवाने के लिए प्रयत्न प्रारम्भ . किया. परस्पर प्रतिस्पर्धा हुई, उससे कटुता निर्मित हुई और विश्व ने देखा कि धार्मिक असहिष्णुता ने विश्व में जघन्य दुष्कृत्य कराये और धर्म के नाम पर उनको स्वर्ग-प्रवेश का साधन बताया गया. विश्व के इतिहास में रुचि रखने वाले सज्जन भलीभांति जानते हैं कि धर्म के नाम पर धार्मिक असहिष्णुता के कारण जितने अत्याचार हुए हैं उतने किसी अन्य कारण से नहीं हुए. यह आश्चर्य का विषय है कि 'धर्म' मनुष्य को आंतरिक शक्ति प्रदानकर्ता होते हुए भी मनुष्य ने उसका दुरुपयोग किया. विचार करने पर यही फलित होता है कि मनुष्य में आग्रह अहंकार तथा तज्जनित 'बौद्धिक हिंसा' काम कर रही है. धार्मिक असहिष्णुता के कारण हिंसक कृत्यों की हमारे देश में कमी नहीं रही. यूरोप आदि देशों में भी कमी नहीं रही. जैनधर्म के अंतिम तीर्थंकर 'महात्मा महाबीर' के हृदय में इस परिस्थिति के निराकरण के लिए आन्दोलन प्रारम्भ हुआ.
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