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________________ ३१२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय आध्यात्मिक विशुद्धियों का भी विचार किया गया है. संक्षेप में कहा जाय तो इनमें मौतिक सुखों एवं आत्मिक गुणों का समन्वय करने का प्रयत्न किया गया है. सूत्रों व धर्मशास्त्रों में मानव जीवन के चार सोपान चार आश्रम निर्धारित किये गये हैं. जिनके अनुसार आचरण करने पर मनुष्य का जीवन सफल माना जाता है. इन चार आश्रमों के पारिभाषिक नाम ये हैं : ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम व संन्यासाश्रम. ब्रह्मचर्याश्रम में शारीरिक व मान सिक अनुशासन का अभ्यास किया जाता है जो सारे जीवन की भूमिका का काम करता है. गृहस्थाश्रम सांसारिक सुखों के अनुभव व कर्तव्यों के पालन के लिए है. वानप्रस्थाश्रम सांसारिक प्रपंचों के आंशिक त्याग का प्रतीक है. आध्यात्मिक सुखों की प्राप्ति के लिए सांसारिक सुख-सुविधाओं के हेतु किये जाने वाले प्रपंचों का सर्वथा त्याग करना संन्यासाश्रम है. प्रथम तीन आश्रमों का पर्यवसान संन्यासाश्रम में ही होता है. इन चार आश्रमों के साथ ही साथ चार प्रकार के वर्षो अर्थात् मनुष्यवर्गों का भी निर्धारण किया गया. इन वर्गों के कर्तव्याकर्तव्यों के लिए आचारसंहिता भी बनाई गई. आचार के दो विभाग किये गये सब वर्णों के लिए सामान्य आचार और प्रत्येक वर्ण के लिए विशेष आचार. जिस प्रकार प्रत्येक आश्रम के लिए विभिन्न कर्तव्यों का निर्धारण किया गया, उसी प्रकार प्रत्येक वर्ण के लिए विभिन्न कर्तव्य निश्चित किये गये, जैसे ब्राह्मण के लिए अध्ययन-अध्यापन, क्षत्रिय के लिए रक्षण- प्रशासन, वैश्य के लिए व्यापारव्यवसाय एवं शूद्र के लिए सेवा-शुश्रूषा. इसी व्यवस्था अर्थात् आचारसंहिता का नाम वर्णाश्रमधर्म अथवा वर्णाश्रमव्यवस्था है. कर्म मुक्ति भारतीय आचारशास्त्र का सामान्य आधार कर्मसिद्धान्त है. कर्म का अर्थ है चेतनाशक्ति द्वारा की जाने वाली क्रिया का कार्य कारणभाव. जो क्रिया अर्थात् आचार इस कार्य-कारण की परम्परा को समाप्त करने में सहायक है वह आचरणीय है. इससे विपरीत आचार त्याज्य है. विविध धर्मग्रंथों, दर्शनग्रन्थों एवं आचारग्रन्थों में जो विधिनिषेध उपलब्ध हैं, इसी सिद्धान्त पर आधारित हैं. योग-विद्या का विकास इस दिशा में एक महान् प्रयत्न है, भारतीय विचारकों ने कर्ममुक्ति के लिए ज्ञान, भक्ति एवं ध्यान का जो मार्ग बताया है वह योग का ही मार्ग है. ज्ञान, भक्ति एवं ध्यान को योग की ही संज्ञा दी गई है. इतना ही नहीं, अनासक्त कर्म को भी योग कहा गया है. आत्मनियन्त्रण अर्थात् चित्तवृत्ति के निरोध के लिए योग अनिवार्य है. योग चेतना की उस अवस्था का नाम है जिसमें मन व इन्द्रियां अपने विषयों से विरत होने का अभ्यास करते हैं. ज्यों-ज्यों योग की प्रक्रिया का विकास होता जाता है त्यों-त्यों आत्मा अपने-आप में लीन होती जाती है. योगी को जिस आनन्द व सुख की अनुभूति होती है वह दूसरों के लिए अलभ्य है. वह आनन्द व सुख बाह्य पदार्थों पर अवलम्बित नहीं होता अपितु आत्मावलम्बित होता है. आत्मा का अपनी स्वाभाविक विशुद्ध अवस्था में निवास करना ही वास्तविक सुख है. यह सुख जिसे हमेशा के लिए प्राप्त हो जाता है वह कर्मजन्य सुखदुःख से मुक्त हो जाता है. यही मोक्ष, मुक्ति अथवा निर्वाण है. कर्म से मुक्त होना इतना आसान नहीं है. योग की साधना करना इतना सरल नहीं है. इसके लिए धीरे-धीरे निरन्तर प्रयत्न करना पड़ता है. आचार व विचार की अनेक कठिन अवस्थाओं से गुजरना होता है. आचार के अनेक नियमों एवं विचार के अनेक अंकुशों का पालन करना पड़ता है. इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए विभिन्न आत्मवादी दर्शनों ने कर्ममुक्ति के लिए आचार के विविध नियमों का निर्माण किया तथा आत्मविकास के विभिन्न अंगों तथा रूपों का प्रतिपादन किया. श्रात्मविकास वेदान्त में सामान्यतया आत्मिक विकास के सात अंग अथवा सोपान माने गये हैं. प्रथम अंग का नाम शुभ इच्छा है. इसमें वैराग्य अर्थात् सम्यक् पथ पर जाने की भावना होती है. द्वितीय अंग विचारणारूप है. इसमें शास्त्राध्ययन, सत्संगति तथा तत्त्व का मूल्यांकन होता है. तृतीय अंग तनुमानस रूप हैं जिसमें इंद्रियों और विषयों के प्रति अनासक्ति होती Jain Education Intergal ivd Arvales Vertual usSONY atthinaary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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