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मुनि श्रीमिश्रीमल 'मधुकर' : जीवन-वृत्त : ५ रहने लगी. अपने छोटे-छोटे हाथों से पुत्र हजारी भी, माँ के काम में हाथ बँटाने लगा. इस तरह माँ सुखी थी. बेटा सुखी था. दोनों का एक छोटा-सा संसार था. माँ अपने बेटे को बता देना चाहती थी कि 'स्वार्थ से सराबोर इस संसार का बरताव देख ले. बड़ा होकर किसी से भी आस मत करना. अपना किया ही अपने काम आता हैं.'
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नारी का सुख :
एक वस्तु भी विभिन्न अनुभूतियों या उसके पृथक् माध्यम के कारण, अनेक रूपों में परिवर्तित हो जाती है. सत्य एक होकर भी वैयक्तिक भेद से अनेक है. दुःख और सुख भी वैयक्तिक भेद से अनेक रूपात्मक है, शब्दातीत है. नारी का सुख पुरुष से भिन्न है. वात्सल्य उसके सुख को बढ़ाता है. वात्सल्य के अभाव में नारी नारायणी नहीं कहलाती है. सुसंस्कार और स्वाभिमान उसके वात्सल्य में स्थायित्व लाते हैं. उस समय वह वात्सल्य को जन-जन में अर्पित कर देती है. वही उसका सुख, सुख है. वह अपने जीवन की प्रत्येक घड़ी में दूसरों को सुखी देखकर, दूसरों को सुखी बनाकर अपने आपको सुखी व प्रसन्न अनुभव करती है. त्याग और सेवा उसकी आत्मा का सरगम है. उसे इसमें अखण्ड आनन्द की उपलब्धि होती है. इस आनन्द में डूब कर वह अपना दुःख, अपना सुख-सब कुछ भुला देती है. तब वह अपने में सीमित न रह कर विराट् बन जाती है. पूज्य स्वामीजी महाराज की माँ भी एक ऐसी ही माँ थी, उस माँ ने अपने वात्सल्य को विराट् बनाया था. वात्सल्य के उस विराट् आलोक में खड़ी होकर एक दिन अपनी ममता के केन्द्र हजारी को स्व-पर कल्याण में जुटे रहनेवाले परमादरणीय स्वामीजी श्रीजोरावरमलजी के चरणों में सौंप कर अपने आपको धन्य-धन्य समझा था. इस अर्पण की पूर्व कथा निम्न प्रकार है--
वर्तमान वर्ते सदा सो ज्ञानी जग माय:
माँ को एक दिन विचार आया-हजारी को नौ महीने तक अपने पेट में रखा, और कंख से जाया-जन्म दिया. आज दुःख की सुख की अच्छी बुरी घड़ियों को पार कर के यह नौ वर्ष का, इस धरती पर लोटते-पोटते, भागते-दौड़ते-हो गया है. इस अवसर पर मैं महासतीजी श्रीचौथांजी के दर्शनों का शुभ लाभ पुत्र सहित क्यों न लूँ ?' माँ नन्दूबाई ने जैनाचार्य श्रीजयमलजी महाराज की सम्प्रदाय की साध्वी श्रीचौथांजी के ब्यावर में दर्शन किए. साध्वीजी ने बालक हजारी में अलौकिक व्यक्तित्व की झलक देखी. माता नन्दू का शोकपूर्ण अतीत सुना. नन्दू को सान्त्वना दी : "बहिन, अतीत को याद कर-करके हृदय-घट को दुःख व शोक से क्यों भरती हो? बीती को भुला दो. विधि के अदृश्य हाथों ने जो लिखा था--वह हुआ. दु:ख के घट को अब बूंद-बूंद ही सही-रीता कर दो. दुःखी जीवन से मन और तन दोनों प्रकारकी शान्ति भंग होती है. इस तरह तो तुम अपनी आत्मा को शोक-सागर में बोर-बोर जैनसिद्धान्तानुसार गुरु बना रही हो.” साध्वी चौथांजी की बात नन्दूबाई के सरल हृदय में बैठ गई. अतीत पर सोचना छोड़कर वह वर्तमान में सोचने और चलने लगी और इस सत्य को साकार कर दिया-"वर्तमान वर्ते सदा सो ज्ञानी जग मांय."
स्वामी जी के मन का झुकाव :
हजारी ने अपना नौ वर्ष तक का जीवन दो सुकोमल हाथों और हृदय के मधुर उपालम्भों व प्रभूत स्नेह तथा वात्सल्य में बिताया था. साध्वी चौथांजी का विचारपूर्ण जीवन-दिशा संकेत सूत्र एवं सात्विक वात्सल्य पाकर बालक हजारी का मन, साधु-जीवन की ओर झुक गया. एक दिन पुत्र हजारी ने माँ से कहा : "मुझे गुरुणी माता के दर्शन तो कराए, किसी दिन श्रद्धय गुरुजी के दर्शन भी करा दो न माँ." माता को वर्तमान पर सोचने की दिशा साध्वीजी से मिली थी. अतः उसने अनुभव किया : 'बीते अतीत को बिसारना ही
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