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डा० ईश्वरचन्द्र : जैनधर्म के नैतिक सिद्धान्त : ३०१
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अध्याय का ५५ वा श्लोक, जो स्थितप्रज्ञ की ऐसी व्याख्या करता है, निम्नलिखित है"हे अर्जुन ! जब एक व्यक्ति मन से उत्पन्न अपनी सभी इच्छाओं को त्याग देता है और जब अपनी आत्मा के द्वारा अपनी आत्मा में स्थित हो कर सन्तुष्ट एवं तृप्त हो जाता है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है." यह आदर्श श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को यह समझाने के लिए प्रतिपादित किया गया है कि यदि अर्जुन जैसा योद्धा निष्काम भाव से अपने कर्तव्य का पालन करे, तो वह कर्म के बन्धन में नहीं पड़ता. इसी प्रकार जैन मुमुक्षु एवं साधु भी प्राणों की रक्षा करता हुआ सन्तुलित रह सकता है और कर्म-पुद्गल से मुक्त हो सकता है. साधु तथा योद्धा के कर्तव्यों में भेद अवश्य हो सकता है, किन्तु साधु आचार का मार्गदर्शन करने वाले जैन सिद्धान्त तथा योद्धा के मार्गदर्शन करने वाले भगवद्गीता के सिद्धान्त का लक्ष्य एक ही है, भगवद्गीता के अनुसार मुमुक्षु एक साधु की भाँति फल की इच्छा से रहित होकर युद्ध-क्षेत्र में अपने कर्तव्य का पालन करता हुआ भी सोक्ष प्राप्त कर सकता है. किन्तु जैन साधु एवं मुमुक्षु एक विरक्त की भाँति प्राणरक्षा के भौतिक फल के प्रति तटस्थ रह कर आध्यात्मिक क्षेत्र में अपने कर्तव्य का पालन करता है, उसका उद्देश्य भी मोक्ष की प्राप्ति है. यदि एक सैनिक द्वारा आध्यात्मिक दृष्टि से किया गया देश की रक्षा का कर्तव्य मोक्ष प्राप्त करने में सहायक हो सकता है, तो अहिंसा के मार्ग पर चलने वाले साधु द्वारा तटस्थ दृष्टि से किया गया प्राणरक्षा का कर्तव्य भी अवश्य ही आध्यात्मिक माना जा सकता है. तेरापंथी अनासक्ति पर आवश्यकता से अधिक बल देते हुये यह भूल जाते हैं कि आत्मा की रक्षा की भाँति जीवरक्षा भी निष्काम भाव से हो सकती है. जिस प्रकार मुमुक्षु के लिए प्राणरक्षा पर आवश्यकता से अधिक बल न देना इसलिए आवश्यक है कि वह कहीं मोक्ष के परम लक्ष्य को विस्मृत न करदे, उसी प्रकार उसके लिये आत्मा की रक्षा पर आवश्यकता से अधिक बल न देना भी इसलिये ही महत्त्वपूर्ण है कि वह कहीं प्राण रक्षा जैसे शुभ साधन की उपेक्षा न करदे. यदि आध्यात्मिक अंग की ओर उपेक्षा प्राणरक्षा को स्वलक्ष्य मानने की भ्रान्ति उत्पन्न कर सकती है, तो प्राणरक्षा को मोक्ष का साधन न मानने की प्रवृत्ति भी मुमुक्षु में प्राणरक्षा के प्रति घृणा उत्पन्न कर सकती है. यदि जीवित प्राणियों के प्रति राग, बन्ध का कारण है तो उनके प्रति घृणा भी बन्ध का ही कारण है. वास्तव में ये दोनों दृष्टिकोण एक दूसरे के पूरक हैं. जैनदर्शन में आत्मा की रक्षा तथा प्राणरक्षा दोनों को प्रतिपादित किया गया है. आत्मा की रक्षा निःसन्देह इस सिद्धान्त के तत्त्वात्मक लक्षण पर बल देती है, जब कि प्राण रक्षा तथा आत्मा की रक्षा दोनों ही साधु के लिये महत्त्वपूर्ण हैं और इन दोनों का समन्वय यह प्रमाणित करता है कि जैनवाद एक नैतिक तत्त्वात्मक (Ethicometaphysical) सिद्धान्त है.
श्रावकाचार (Ethics for laymen) यद्यपि जैनवाद का यह मत है कि मोक्षप्राप्ति के लिये गृहस्थ तथा वानप्रस्थ आश्रमों से गुजरना अनिवार्य नहीं है. उनमें गुजरने से पूर्व ही संन्यास अपनाना आवश्यक है, तथापि एक गृहस्थ पांच महाव्रतों का आंशिक अनुसरण करके त्यागाश्रम के जीवन का अभ्यास कर सकता है. सभी जैन सम्प्रदाय यह स्वीकार करते हैं कि गृहस्थियों एवं श्रावकों के लिये अणुव्रतों का अनुसरण करना भी वास्तव में त्याग के जीवन का अभ्यास करना है. अणुव्रत का अर्थ महाव्रत का सूक्ष्म अंश अथवा अणु है. अणुव्रत वास्तव में महाव्रतों पर आधारित सरल नियम है. इसमें कोई सन्देह नहीं कि अणुव्रतों की जैनमत में जो व्याख्या की गई है उसे देखते हुए वह हमारी अनेक नैतिक और सामाजिक समस्याओं को सुलझा सकते हैं. ये अणुवत न ही केवल एक मनुष्य को आत्मशुद्धि के द्वारा आत्मानुभूति करा सकते हैं, अपितु सत्य, अहिंसा, न्याय तथा साहस पर आधारित एक दृढ़ चरित्र का निर्माण कर सकते हैं. जैनवाद के उपरोक्त अध्ययन से यह सिद्ध होता है कि इस दर्शन का विशेष लक्षण इसकी व्यावहारिकता है. इसका सुनिश्चित नैतिक अनुशासन व्यक्ति को सामान्य स्तर से ऊपर उठाता है और उसे सच्चरित्र द्वारा यथार्थ ज्ञान से अवगत कराता है. जनवाद को सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र के तीन नियमों पर आधारित माना गया है. इन्हीं
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