________________
डा० ईश्वरचन्द्र शर्मा एम० ए०, पी-एच० डी०
जैनधर्म के नैतिक सिद्धान्त
जैन दर्शन ऐतिहासिक दृष्टि से बौद्ध धर्म की अपेक्षा अधिक प्राचीन है. इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह दर्शन अहिंसा को जीवन का परम लक्ष्य और मोक्ष का अनिवार्य साधन मान कर चलता है. इस प्रकार भारतीय दर्शनों में जैनवाद को प्राचीनतम अहिंसावादी दर्शन स्वीकार किया जाता है. जैनियों की यह धारणा है कि उनका धर्म तथा उनका दर्शन वैदिक विचारधारा से भी अधिक प्राचीन है. इसमें कोई सन्देह नहीं कि वर्द्धमान महावीर जैनधर्म के प्रवर्तक नहीं थे, अपितु एक सुधारक थे. यह सत्य है कि महावीर से पूर्व जैन तीर्थकर पार्श्वनाथ एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे और महावीर के माता-पिता पार्श्वनाथ के अनुयायी थे. महावीर ने निस्संदेह जैन दर्शन को एक व्यवस्थित रूप दिया है और साधुओं तथा गृहस्थ अनुयायियों के लिए अहिंसा धर्म पर आधारित ऐसे नैतिक नियमों का प्रतिपादन किया है, जो आज तक जैन समाज द्वारा आदर्श स्वीकार किए जाते हैं. जैन आचारमीमांसा अत्यन्त कठिन और कड़े नैतिक नियमों को प्रतिपादित करती है. इससे पूर्व कि हम जैन आचारशास्त्र की विस्तृत व्याख्या करें, हमारे लिए यह बताना आवश्यक है कि जैन आचारशास्त्र कड़े अनुशासन पर क्यों बल देता है ? जैनवाद में कठोरता का कारण हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि जैनवाद निवृत्तिमार्ग को अपनाता है और उस प्रवृत्तिमार्ग का विरोध करता है, जो वैदिक दृष्टिकोण के अनुसार क्रियात्मक सामाजिक जीवन को वांछनीय स्वीकार करता है. जिन प्राचीन वैदिक मंत्रों का आर्य लोग गान करते थे, देवताओं और परमेश्वर के प्रति सांसारिक जीवन की सफलता के लिये प्रार्थना मात्र थे. किन्तु धीरे-धीरे वैदिक विचारकों ने यह अनुभव किया कि त्याग की भावना विना वे मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते. इसके फलस्वरूप उन्होंने चार आश्रमों की प्रथा को प्रचलित किया. ये चार आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास हैं. इसी प्रकार वैदिक धर्म के अनुसार अर्थ, काम, धर्म तथा मोक्ष इन चार पुरुषार्थों को भी स्वीकार किया गया है. वैदिक दृष्टिकोण के अनुसार मोक्ष की प्राप्ति क्रमिक हो सकती है, यद्यपि उस प्राप्ति के लिये संन्यास अत्यंत आवश्यक है. जीवन के पहले तीन आश्रम संन्यास की उस अन्तिम अवस्था की तैयारी मात्र हैं, जिस पर पहुँच कर मोक्ष की अनुभूति हो सकती है. ब्रह्मचर्य अवस्था में व्यक्ति के लिये अपने समय और शक्ति को विद्या प्राप्त करने में लगाना इसलिये आवश्यक है कि वह गृहस्थ आश्रम में प्रविष्ट होने के लिये योग्यता प्राप्त करके अर्थ तथा काम को अनुभूत कर सके. पच्चीस वर्षों तक पर्याप्त धन उपार्जन करने के पश्चात् वानप्रस्थ आश्रम में पच्चीस वर्ष धर्माचरण में लगाना आवश्यक है. इस अवस्था में व्यक्ति नैतिकता का उपदेश करता है तथा उसका आचरण करता है और सामाजिक कल्याण में प्रवृत्त हो जाता है. अन्तिम पच्चीस वर्ष ध्यान तथा आत्मानुभूति के लिये इसलिये नियत हैं कि व्यक्ति संन्यास की अवस्था में जीवन्मुक्त हो जाय और अन्त में विदेह मुक्ति को प्राप्त करे. वेदवाद अथवा ब्राह्मणवाद इस प्रकार अनासक्त तथा त्याग के जीवन की ओर क्रमशः अग्रसर होने में विश्वास रखता था. जीवन की यह योजना नि:संदेह आकर्षक और व्यापक थी. लेकिन उस समय के विचारकों ने विशेष कर जैन सिद्धान्त
AAAA
Jain Educati
MAOLeDiary.org