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मुनि श्री मिश्रीमल 'मधुकर': जीवन-वृत्त : ३
किलकारियों से हृदय में उल्लसित होने लगी.हँसते-खेलते, भागते-गिरते, रोते और मीठी नींद में सोते हजारी को देख-देख कर वे उल्लास से भर-भर जाती.
स्नेहाधार :
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माता ने माना था—यह मेरी ममता का मेरु है. भगिनी ने भाई को बल का आधार माना था. पिता ने निश्चय किया था—'मेरा सारा कर्म और धर्म हजारी के लिए है. यह मेरी कीर्ति का युगांतरकारी ध्वज है!' स्नेह बँट जाता है. धन लुट जाता है. समय सरक जाता है. समय की करवट से, सब उलट-पुलट हो जाता है ! पिता न्यायनीति से धनोपार्जन के पक्षकार थे. कृषि, गोपालन, वस्तु का आदान-प्रदान, विक्रय और विभाजन—ये उनके अर्थोपार्जन के स्रोत थे! वे इन पर आधारित थे. स्वभाव के पूर्ण साधु. समय ने अंगड़ाई ली—सब कुछ बिखर गया. चलसम्पत्ति विभाजित हो गई. अचल के हिस्से में भी सबलों की आँखें गड़ गईं. अदृष्ट अभाव, देह धारण कर सामने आ गया. मोतीलालजी ने स्थिर मस्तिष्क और शान्त मन हो स्थिति पर विजय प्राप्त करनी चाही. रोग का भयंकर आक्रमण हुआ. उन्होंने धैर्यपूर्वक रोगाक्रमण से संघर्ष किया. शारीरिक अस्वस्थता में भी मानसिक स्वस्थता का अनुभव किया . तीन वर्ष तक रोग से जीर्ण काया के द्वारा घरका काम सँभाला. गाँव के बड़े-बूढ़े स्त्री-पुरुषों की आँखों का सुख हजारी पढ़ने लगा. पुत्र पांच वर्ष का हुआ. पिता काल की आँखों आ गए. माता निराधार हो गई. परिजनों के मुखमंगल वचन, नन्दू की आवश्यकता और दुःखी मन की मरहम न बन सके. जैसे-तैसे माता ने दो वर्ष व्यतीत कर दिये. माताने सोचाः 'मेरा हजारी सात वर्ष का हो गया है. किशनी साल दो साल में अपने घर की हो जायगी तब तक यह भी समझने लगेगा. जैसे-तैसे घर का काम चल जायगा. 'उनकी' अंतिम निशानी को देख-देखकर ही जीवन बिता दूंगी. वृद्धावस्था का अब मेरा यही तो एक आधार है? घर-गृहस्थी की बातें समझने लगेगा तो क्या मेरे 'लाल' को गरीब घर की कन्या न मिलेगी ? जरूर मिलेगी.
जननी पर विपत्ति:
माता जानती थी, स्वजन—वैसे तो सभी स्वार्थ में डूबे हुए हैं. सारा संसार ही स्वार्थ की आग में जल रहा है. निरर्थक परार्थचिन्तन किस को सूझता है ? वे दिन, वह समय अब नहीं है कि स्व और पर हित चिन्तन मनुष्य साथ-साथ किया करता था. इसके पिता बार-बार कहा करते थे-"किशनी की माँ ! मेरी आँखें बन्द हो जाएंगी तो हजारी का क्या होगा ?" मैं उन्हें कहा करती थी- "आप ऐसी अशुभ कल्पना क्यों करते हैं ?" मेरा यह कहना, आज सोचती हूँ झूठी सांत्वना थी. झूठी हो या सच्ची, वे तो अनन्त पथ के पथिक हो गए. अपनी राह चले गए. न जाने कौन-सी अज्ञात शक्ति है जो अनजाने में ही हमारे 'अपने' को अपने पास बुला लिया करती है. शायद उनको न्याय-नीतिमय जीवन जीते हुए यह दीखने लगा था कि मैं चला जाऊँगा और हजारी बेसहारा हो जाएगा. मैं उनकी बात को टाल जाया करती थी. जब-तब यह भी कहती—'वीरभूमि मेवाड़ का जाया जन्मा अपनी आन और शान पर मरता मिटता आया है. विपन्नावस्था में भी वह पराजय नहीं स्वीकार करता है. श्रम के कण ही मेवाड़ के मोती हैं. पिछला इतिहास बताता है, श्रुतिपरम्परा से, बड़े-बूढ़ोंके मुँह सुनती आई हूँ-मेवाड़ की मिट्टी के रजःकणों में लोट-लोटकर बड़ा होने वाला मेवाड़ी हृदय का भोला, बड़ों का आदर करने वाला एवं अपनी आन-शानको प्राण-प्रण से निभाने वाला होता है. वह किसी के सामने अपेक्षा और आकांक्षा के लिए हाथ पसार कर अपनी दीनता नहीं दिखाता. आज इस सत्य की कसौटी का दिन आ गया है.
१. सम्यग्दृष्टि आत्मा, असातावेदनीय का तीव्रतम उदय होने पर भी शारीरिक चिन्ताओं में निमग्न न रहने के कारण निर्जरा का अधकिारी
बनता है, जब कि ठीक वैसी स्थिति में वही कर्मोदय मिथ्यादृष्टि आत्माओं के लिए बन्ध का कारण है ! एक वस्तु हो कर भी दृष्टिमेद से भिन्न स्थिति की सुष्टि होती है. जैसा कि आध्यात्मिक सन्त महात्मा गांधी के आध्यात्मिक मार्गदर्शक श्रीमद् रायचन्द्रजी ने निम्न पंक्तियों में अभिव्यक्त किया है-'ज्ञानी के अज्ञानी जन सुख दुःख थी रहित न कोय, शानी वेदे धैर्य थी अज्ञानी वेदे रोय।'
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