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मुनि श्रीमल्ल : पाहत आराधना का मूलाधार सम्यग्दर्शन : २८१
होता है, न विकृत होता है और न नष्ट ही होता है. वह चिरंतन सुन्दर है. देह मर्त्य है और आत्मा अमृत. मनुष्य का देहमूलक मर्त्य अंश ही उसे पार्थिव जगत् से सम्बद्ध रखता है. भारतीय दर्शन का यह कथन बहुत ही महत्त्वपूर्ण है कि "जब तक मर्त्य और अमृत अंशों को ठीक से नहीं समझा जायगा एवं उनका सम्यक् विकास नहीं किया जायगा तब तक मनुष्य अपूर्ण ही रहेगा." यदि किंचित् सम्यक् दृष्टि से सोचा जाय तो कहा जा सकता है कि आदर्श और यथार्थ के कगारों में जीवन-सरिता प्रवहमान होनी चाहिए. इनका सम्यक् समन्वय ही जीवन को सत्यम् शिवम् सुन्दरम् से अभिहित कर सकता है. यथार्थ
और आदर्श, मर्त्य और अमृत का संयोग ही मानव जीवनको उन समस्त मानवीय मूल्यों से अवगत करा सकता है जिसने मनुष्य को देवतातुल्य बनाया है । आज जिनकी सर्वाधिक आवश्यकता अनुभव की जा रही है वे यही मानवीय मूल्य हैं जो भौतिकता के अतिरेक में प्रायः नष्ट होते जा रहे हैं. स्वार्थ, दम्भ, मोह एवं तृष्णा ने आज इन्हें अपरूप बना डाला है, लिप्सा और वासना के आधिक्य ने विरूप कर दिया है. भोगवादी मनुष्य केवल अपने भौतिक स्वरूप को ही जानता-पहचानता है. शरीर का सुख उसका सुख है. शरीर का दुःख उसका दुःख है. शरीर के ह्रास-विकास में ही उसके ह्रास-विकास की सीमा है. वह मानता है कि शरीर सुन्दर है तो वह सुन्दर है और यदि शरीर विकृत है तो वह भी विकृत है. भोगवादी मात्र भोग के जाल में आबद्ध रहता है. वह सोचता है कि पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि आदि सब मेरे हैं और मैं उनका हूं. इन भूतों के संयोग से ही मेरा अस्तित्व है और इनका बिखराव ही मेरा मरण है. भोगवादी अमृत अंश को मानने से इन्कार करता है और मर्त्य अंश को मानने के लिए इकरार करता है. इसीलिए भोग-विलास, दैहिक सुख, अर्थ, काम इत्यादि उसके साध्य बन जाते हैं. इन सबकी प्राप्ति और इनके उपभोग में ही वह अपने जीवन की सार्थकता समझता है. पाश्चात्य राष्ट्रों में इस दर्शन अथवा दृष्टि का चरम विकास हुआ है. शायद सदियों की घुटन, कुंठा, उत्पीड़न, शोषण एवं रक्तलोलुपता की यह प्रतिक्रिया है. पाश्चात्य साहित्य एवं इतिहास के अनुशीलन से यह और भी स्पष्ट हो जाता है. यह सब वहां इसलिए संभव हुआ कि वहां मानव की वृत्तियों पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया. हमारे यहां नीति, धर्म, सभ्यता एवं संस्कृति के आलोक में उनको संस्कारित करने का प्रयत्न किया गया है. इस प्रकार के प्रयत्न वहां स्वल्प दृष्टिगत होते हैं. यह भी हो सकता है कि जिस प्रकार की भूमिका की उसके लिए अपेक्षा होती है वह शायद वहां नहीं बन पाई. हमारे यहां तो हमारा प्राद्य इतिहास भी उसकी एक भूमिका है. हमारे धर्माचार्य भी सदैव इसके लिए सजग रहे हैं. अध्यात्मवादी मनुष्य शरीर की सत्ता से इन्कार नहीं करता. उसकी विवेक-दृष्टि शरीर के अन्तःस्थित दिव्य अंश का भी साक्षात्कार करती रहती है. इसीलिए शरीर में स्थित होने पर भी वह आत्मा को शरीर से भिन्न मानता है.' यह एक चेतन तत्त्व है. यही चेतना प्राणीमात्र को संचालित करती है. मानव के उद्भव में इसी तत्त्व का सर्वाधिक योग है. मानवीय उत्क्रान्ति के मूल में भी यह समाहित है. यही चेतना मानवी वृत्तियों को दुष्प्रवृत्तियों की ओर से पराङ्मुख कर शिवत्व की ओर उन्मुख करती है. सामाजिक हित व श्रेय-मार्ग की ओर प्रेरित करती है. स्व के अतिरिक्त अन्य का भी अस्तित्व है एवं उसका सम्यक् ज्ञान भी इसी के आलोक का परिणाम है. व्यक्ति समाज का अंग है, समाज विराट् है. अतः यह व्यक्तित्व, यह सत्त्व समाज में घुल-मिल कर एक रस हो जाना चाहिए. अहम् से वयम् की यह प्रक्रि या इसका प्राण है. आत्मवादी के जीवन में भोग-विलास आदि का अस्तित्व भी रहता है, परन्तु इनकी प्राप्ति एवं उपभोग ही उसके जीवन
१. आया वि काया, अन्ने वि काया. --भगवती सूत्र
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