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२०६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय
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तीर्थकर माना गया है. तीर्थंकर का अर्थ होता है वह व्यक्ति जो जनसाधारण को सांसारिक बंधनों से छुटकारा दिलाकर 'निर्वाण' की ओर अग्रसर करे. तीर्थंकर की विशेषताओं के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वह 'पुरुषोत्तम' 'आदर्श पुरुष' होता है. वह ऐसा व्यक्ति होता है जो न किसी से राग करता है, न द्वेष, न किसी पर क्रोधित होता है, न प्रसन्न. जिसे किसी वस्तु के प्राप्त होने पर न तो खुशी होती है और न उसके वियोग में रंज. धनी-गरीब, ऊंच-नीच, सभी के साथ वह समान व्यवहार करता है. सर्वथा निर्भय और निःशंक वह सभी मानवीय आवश्यकताओं के प्रति रागहीन होकर न तो निद्रा की आवश्यकता महसूस करता है और न किसी प्रकारके आहार-विहार की. जैनों के धार्मिक ग्रंथों में तीर्थंकर की ३४ विशेषताएँ बतलाई गई हैं. महावीर में ये सभी विशेषताएँ थीं. लगभग ३० वर्ष तक महावीर जगह-जगह उपदेश देते रहे. करीब ७२ वर्ष की आयु में शरीरत्याग किया. यद्यपि महावीर ने उपनिषदों से भी बहुत कुछ ग्रहण किया पर उपनिषदों की अपेक्षा महावीर के सिद्धान्तों में कुछ मौलिक अंतर था. महावीर 'आत्मा' को मानते थे 'विश्वात्मा' को नहीं. जैनधर्म के अनुसार मरने के बाद जीव पुनः (तुरन्त) जन्म लेता है. इस प्रकार यह जीवन-चक्र चलता ही रहता है. जैनधर्म में 'कर्म' को बहुत महत्त्व दिया गया है. वस्तुत: जैनधर्म के सारे सिद्धान्त 'कर्म' के इर्द-गिर्द घूमते हैं. कर्म का सीधा और सरल अर्थ है जीव द्वारा किया गया कार्य. जो जीव जैसा कार्य करता है उसी के अनुसार जन्म-जन्मांतर में उसे अच्छा-बुरा फल मिलता है. महावीर के सिद्धान्त के अनुसार जीव को जहाँ तक संभव हो अच्छे-से-अच्छे कार्य करके शीघ्रातिशीघ्र जन्म-मरण के इस चक्कर से छुटकारा पाना चाहिए. इसका सरल मार्ग भी उन्होंने बतला दिया. यह सरल मार्ग है 'अहिंसा' अर्थात् किसी को किसी प्रकार का शारीरिक या मानसिक कष्ट नहीं देना. महावीर का मत था कि केवल मानव ही नहीं, वरन पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों, जल-वायु आदि में भी जीव होता है. इस आधार पर जैन लोग कम-से-कम वस्तुओं का उपयोग कर अहिंसा का पालन करते हैं. इसी आधार पर जैनधर्म में पशुबलि का निषेध तो हो ही गया, पर ऐसी क्रीड़ाओं-कार्यों का भी जैनों ने बहिष्कार किया, जिनमें पशु-पक्षियों को किसी प्रकार का कष्ट पहुंचता हो. आहार के लिए पशु-हत्या तो स्वाभाविक ही बंद हो गई. आज संसार में जैन समाज ही एक ऐसा समाज है जिसे पूर्णत: शाकाहारी कहा जा सकता है. भारत में जैन परिवारों में किसी भी प्रकार के उपयोग के लिए पानी को पहले छान लिया जाता है. इसका भी मुख्य उद्देश्य अदृश्य जीवों की हत्या रोकना है. कुछ जैन साधु अपने मुंह के ऊपर कपड़ा बांधते हैं (केवल इसीलिए कि बोलने में सूक्ष्म कीटाणु मुंह के अंदर न चले जाएं.) सड़क पर चलते समय भी पूर्णत: सावधानी रखी जाती है ताकि रास्ते में छोटे-छोटे कीड़े न कुचल जाएँ. चूंकि जीवित रहने के लिए कुछ-न-कुछ खाना-पीना आवश्यक है, अतः यह जानते हुए कि 'वनस्पति' में भी जीव होता है, जैन लोग आहार के लिए कुछ (सभी नहीं) ऐसी वनस्पतियों का उपयोग करते हैं जिन्हें प्राप्त करने में जीवहत्या की संभावना कम रहती है. जैन लोगों को इस बात का गौरव है कि भारत में सबसे पहला पशु-अस्पताल उन्होंने ही खोला था.
महावीर के सिद्धान्तों में अहिंसा प्रमुख है. वस्तुत: अहिंसा ही जैनधर्म की रीढ़ है, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह-इन चार बातों से बचना अहिंसा के बाद मुख्य रूप से माना जाता है. ये सभी बातें ऐसी हैं जो कोई भी व्यक्ति आसानी से पालन कर सकता है, पर महावीर का आग्रह था कि संसार में रहते हुए इन बातों से बचे रहना मुश्किल है. अतः उनका मत था कि शीघ्रातिशीघ्र इस संसार से वैराग्य लेकर साधु-संन्यासी का जीवन बिताना चाहिए. जन-साधारण की अपेक्षा जैन साधु के जीवन-निर्वाह के नियम और भी कठिन हैं. वे अपने साथ न तो किसी प्रकार का धन या सामान आदि रखते हैं और न कभी किसी एक मकान में ही रहते हैं. यद्यपि व्यावहारिक जीवन में सभी जैन वस्त्र पहिनते हैं पर सिद्धान्ततः उनमें 'दिगम्बर' नामक एक सम्प्रदाय है जो साधुओं के निर्वस्त्र रहने पर जोर देता है. उनकी मूर्तियाँ भी नग्न रहती हैं. इस प्रकार सोचने-समझने और कार्य करने की प्रेरणा महावीर को कहाँ से मिली ? इस संबंध में मैं कुछ भी नहीं कह सकता. विद्वानों में भी इस संबंध में मतभेद है. लेकिन हमें इससे कोई सरोकार नहीं. मुख्य बात यही है कि आज से
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