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मुनि श्रीमिश्रीमलजी म. 'मधुकर'
मुनि श्रीहजारीमलजी : जीवनवृत्त
गृहीजीवन:
एक दिन अवनि पर आंखें खुलीं,-यह जीवन का प्रारम्भ हुआ ! एक दिन आँखों ने देखना बन्द कर दिया-यह जीवन का अन्त हुआ ! जीवन किस तरह जीया गया-यह जीवन का मध्य है ! कौन किस तरह जीवन जी गया--यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न है. इसी प्रश्न की चर्चाओं में से जीवन चरितों का गठन, लेखन और परिगुंफन होता है. मनुष्य-देह में, जीवन धारण करने पर जिसका जीवन असाधारण गुणों की ओर अभिमुख होता है, उसके असाधारण व्यक्तित्व से मनुष्य प्रेरणा ग्रहण कर अपने जीवन को सुवास से परिव्याप्त करना चाहता है. मनुष्य का विकल देवत्व सतत् काल से ऐसे ही जीवन की टोह में रहा है. मानव दुर्बलताओं से अभिभूत रहता आया है. मानवीय दुर्बलताओं में जीते-जीते वह दुर्गुणों में अत्यधिक आसक्त हो गया. अतः आसक्तियों पर विजय प्राप्त करने वाले जीवनों का अनुगमन करने में ही आत्मा की समुपलब्धि संभाव्य है. मेघ से सहस्रों बूंदें, माँ धरती के प्रेमांक में परित्राण प्राप्त करने के लिये-निःसृत होती हैं. एक स्थान से अवतरण करने वाली सभी बूंदें मुक्ता नहीं बनतीं ! सीपी के सम्पुट में प्रविष्ट होनेवाली बूंद ही अखंड सौभाग्यवती है. कालांतर में मनुष्य उसे मुक्ता की संज्ञा प्रदान करता है. मरुधरा के जनवंद्य, महामना मुनि श्रीहजारीमलजी महाराज का जीवन, राजस्थान की सूखी मिट्टी में प्रकट हुआ था. एक दिन इसी धरती के कणों में उनकी काया समाहित हो गई. भारतवर्ष की विमल सन्त-संस्कृति के प्रति, अर्पणभाव रखने वालों ने उनका पुण्यस्मरण कर-कर समर्पणभाव का तर्पण इन शब्दों में किया. "उनकी पवित्र काया माटी में नहीं समाई, वह सोना बन गई." वे देह धारे रहे--तब तक जनमानस उन्हें सन्त-रत्न कहता रहा. महामुनि श्रद्धेय श्रीहजारीमलजी महाराज के जीवन को हम अपनी लेखनी से कितना अंकित कर पायेंगे-नहीं कह सकते. हम जो लिखेंगे जनता उसे नहीं सह सकती. क्योंकि हमारे कहने से भी अधिक उनका गरिमा-महिमा-युक्त जीवन और जीवन की घटनाओं का स्मरण चित्रालय-उनके पास है. महापुरुषों का जीवन लेखनी से लिखे जाने का विषय नहीं होता. सन्त का जीवन वैशिष्ट्यों का क्षीरसागर होता है. मनुष्य किन-किन बिन्दुओं का कलम की नोकसे संदर्शन करायेगा ? लिखते-लिखते अनेक जीवन भी एक जीवन का सम्पूर्ण अंकन नहीं कर सकते. उक्त अंकित अंश में सैद्धान्तिक दृष्टि से बहुत बड़ा सत्य सन्निहित है. एक व्यक्ति सन्त के जीवन का बयान करने का दावा भी नहीं कर सकता. क्योंकि वाणी से सन्त-जीवन को परिज्ञापित कराते-कराते वाणी बेचारी क्लांत हो जाती है. अंकनकार थक कर शीतल छाँह की प्रत्याशा करने लगता है.
जीवन का प्रारंभ पूज्य श्रीहजारीमलजी महाराज ने अपने जीवन को कैसे जीया ? उन्होंने अपने जीवन में किन-किन विशेषताओं को किस-किस प्रकार से समाहित किया-यह उतना महत्त्वपूरित नहीं है. वह महा व्यक्तित्व जनमानस में किस प्रकार जीवित
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