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मुनि कान्तिसागर : लोंकाशाह की परंपरा और उसका अज्ञात साहित्य : २१६ ६ बड़े वरसंघजी-प्रभास पाटण निवासी, ओसवाल नाहटा गोत्रीय, पिता सुमीया माता कस्तूरां बाई, जन्म सं० १५६४ दीक्षा सं० १५८७ चैत्र वदि ५, पदस्थापन सं० १६१२ वैशाख शुक्ला ६, सवा वर्ष जीवराजजी के साथ विहार, सं० १६४४ कात्तिक शुक्ला ३ को स्तम्भतीर्थ-खंभात में स्वर्ग-गमन. जिस प्रकार जीवराजजी के एक शिष्य कुंवरजी को बालापुर के श्रावकों ने आचार्य पद प्रदान कर 'लोंकागच्छ नानी पक्ष' की स्थापना की, उसी प्रकार वटपद्रीय-बडौदा के भावसारों ने इन्हें श्रीपूज्य की पदवी देकर 'गुजराती लोंकागच्छ बडीपक्ष' का प्रादुर्भाव किया. कवि नेम प्रणीत इनकी प्रशंसा में एक छन्द सं० १७७१ के पूर्व लिखा गया जो इसी प्रबन्ध में आगे दिया जा रहा है. इसमें विशेष ऐतिहासिक तथ्य तो नहीं है, केवल माता-पिता के नाम हैं. सं० १५३६ में लोकाशाह की साधना की सफलता मानी है और प्रथम चारित्र की उपलब्धि का श्रेय रूपऋषि को दिया है जो विचारणीय है. लोंकागच्छ में प्रथम मुनि तो भाणाजी ही माने जाते रहे हैं, पर अनुमान है कि कवि गुजराती लोंकागच्छ का अनुयायी था और इसकी संस्थापना रूपऋषि द्वारा हुई थी. अतः इस अपेक्षा से मुनित्व की प्राथमिक संज्ञा दी जान पड़ती है. पर लोंकाशाह द्वारा १५३६ की सफलता का रहस्य समझ में नहीं आया. सूचित काल में ऐसी कोई उल्लेख्य घटना का पता नहीं लगता. कहीं इसका संकेत लोकाशाह के स्वर्गवास से तो नहीं है ? तात्कालिक जैन परम्परा के इतिहास से विदित होता है कि वह समय जैन समाज के लिए बड़ा ही विषम था. नित नई क्रान्तियां हुआ करती थीं, जिसका तनिक भी व्यक्तित्व उभरा कि उसने अपनी नव्य प्ररूपणा प्रारम्भ कर दी. यह सनातन सत्य है कि एक क्रान्ति दूसरी क्रान्ति की पृष्ठभूमि हुआ करती है. पूर्वजों के चरण-चिह्नों पर चलना भारतीय परम्परा रही है. सं० १६१६ में सिसु प्रमुख बारह व्यक्तियों ने विभिन्न मान्यताओं के रहने के बावजूद भी वरसंघजी से विरुद्ध होकर नया मार्ग निकाला. कुंवरजी ने भी इसी समय अपना पक्ष स्वतन्त्र स्थापित किया. ये कवि थे. इनकी सं० १६२४ श्रावण सुदि १३ गुरुवार, रचित साधु वंदना उपलब्ध है. बड़े वरसंघजी सं० १६२७ में गच्छ का दायित्व अपने शिष्य लघु वरसंघजी को सौंपकर २७ वर्ष साथ विचरण करते रहे. खंभात में इनका स्वर्गवास सं० १६४४ में हुआ. बड़े वरसंघजी के समय में भीमाजी भावसार ने, जो बाद में मुनि हो गये थे, ३ खंडों में श्रेणिक रास क्रमशः सं० १६२१ भाद्रपद शुक्ला २ बड़ौदा, सं० १६३२ भाद्र पद कृष्णा २ वड़ौदा, और सं० १६३६ आश्विन कृष्णा ७ रविवार को पूर्ण किया. इसी बीच भीमजी ने सं० १६३२ में नागलकुमार-नागदत्त रास भी बनाया. मेरे संग्रह में वरसंघ की प्रशंसा में लिखा गया एक अपूर्ण सार्थ पद्य है जिसका लेखनकाल सं० १६४१ है. वह पद्य इस प्रकार है--
....................रमुनियुतं मालबेलातदीक्षं । वंदे श्रीवीरशिव्यं श्रुतवरसरसी खेलने राजहंसं ॥ शिक्षादं साधुसिंहं शिवपुरसुखदं सुन्दरंसाधुयुक्तं ॥६॥
इति स्रग्धरा छन्द अभिनवंसदाचार्य सारासार विचारकं । गणिसंपत्समायुक्तं वंदे बादीवरांकुशम् ॥७॥ वंदे चारुवरं वरहगणिवादिध्यालेमृगारिं । शांत्यागारं शुभवरगुणं साधुपद्मशशांकं ॥
१. लोंकागच्छ की बड़े पक्ष की पट्टावली में बताया गया है कि कुवरजी ने अपने पक्ष की स्थापना सं० १६३६ में बीकानेर में की. पर यह
कथन युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता.
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