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१८० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय
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नगर, डगर-डगर, पैदल घूमकर अहिंसा, संयम व त्याग की गंगा बहाने वाला, घर-घर धर्म का अलख जगाने वाला, निस्पृह, क्रियाशूर धर्मवीर, क्रियानिष्ठ जैन श्रमण-समूह, आज परिग्रह, बाह्य क्रियाकाण्ड और साम्प्रदायिकता आदि के चक्र में पड़ गया था. धर्म का अन्तस्तल विलुप्त था. मिथ्या आडम्बरों में ही धर्म साधना की इतिश्री समझी जाने लगी थी. चैत्यवाद का जोर था. चेतनपूजा के स्थान पर जड़पूजा का प्राबल्य था. जैन-धर्म का सार तप, त्याग व इन्द्रियनिग्रह तो अब बस कल की वस्तु बन गया था. इस प्रकार उस समय सामाजिक व धार्मिक दशा शोचनीय थी. क्रान्तिका शुभागमन प्रकृति का अपरिवर्तनशील विधान है कि क्रिया की प्रतिक्रिया होती है. परिस्थितियाँ स्वयं समयानुसार महापुरुष को उत्पन्न करने की शक्ति रखती हैं. धर्म का सच्चा स्वरूप सदा छिपा नहीं रह सकता. आडम्बर एक दिन प्रकट होते ही हैं. अंततः धर्म की मशाल जलती है. आखिर सत्य की पूजा होती है. १५ वीं शताब्दी विश्व-इतिहास में धर्मक्रान्ति का काल है. यूरोप में भी जब पोपशाही खूब फैली, जनता गुमराह होने लगी, स्वर्ग के प्रमाण-पत्र तक बिकने लगे, पास-पोर्ट बनने लगे, तब जर्मनी में . मार्टिन लूथर चमका. उस नर-नाहर ने बुलन्द गर्जना की. इतिहास साक्षी है कि एक दिन इस नन्हें दिये ने तूफान को पराभूत कर दिया और लूथर की प्रचण्ड चट्टान से टकराकर पोप का जंगी बेड़ा चूर-चूर हो गया. इसी तरह भारतवर्ष में भी इसी काल में बिजली के महान् प्रकाश की तरह आशा-उमंग का नया आलोक ले अवतरित हुए थे-समर्थ क्रियोद्धारक सत्य-पथ-प्रदर्शक वीर लोकाशाह. इस प्रकार भगवान् महावीर की भविष्यवाणी अक्षरशः सत्य हुई. लोकाशाह ने वि० संवत् १५३१ में क्रान्ति का बिगुल फूंका. धर्म के मूल रहस्यों को प्रकाशित किया और सत्-धर्म का डंका पालम में बजवा दिया. प्रारम्भिक जीवन लोकाशाह का बाल्यकाल खेलकूद में बीता. वे बड़े होनहार थे. जीवन प्रारम्भ से ही वैराग्यवृत्ति प्रधान था, पर मातापिता के अत्यन्त आग्रहवश वे विवाह-सूत्र में बद्ध हुए. उनका गृहस्थ-जीवन भी प्रादर्श था. एक सुपुत्र-रत्न की भी प्राप्ति हुई. बाद में वे कुछ कारणों से अहमदाबाद में आकर बस गये. जवाहिरात के व्यापार में खूब चमके. गुलाब की सुवास सीमित क्षेत्र में अवरुद्ध कैसे रह सकती है ? प्रसन्न होकर तत्कालीन बादशाह मुहम्मद शाह ने लोकाशाह को कोषाध्यक्ष के पद पर सुशोभित किया. सुख की कमनीय क्रोड में पलने वाले लोंकाशाह को क्या अभाव था ? उनका वर्चस्व जोरों पर था. पर उनका दीर्घदर्शी अन्तर्मन समाज व धर्म की विकृत अवस्था देखकर फूट-फूट कर रोता था. वे एक महान् आत्मा थे. उन्होंने समाज का भद्दा चित्र एकदम भांप लिया. यह सब देख उनके अंतस्थल में क्रान्ति की लहरें हिलोरें मारने लगी, गहरा चितन किया. हृदय में से पुकार उठीलोकाशाह ! समाज और धर्म में कुछ जागृति ला. अभी समय है, फिर तो बिगड़ा बनना मुश्किल हो जायेगा. सत्य की खोज में उनकी दूरदर्शिता ने पाँखें फैलाईं. पहले विशेष ज्ञान प्राप्त करने की अभिलाषा जागी. लोकाशाह सत्यान्वेषक बने. गवेषणा का क्रम चला. वे स्वयं एक अच्छे लेखक थे. उन्होंने एक लेखक-मण्डल बनाया. शास्त्रों का लेखन प्रारम्भ हुआ. पर उस समय शास्त्र श्रावकों को उपलब्ध कहाँ ? शिथिल श्रमणवर्ग ने अपनी सुरक्षा के लिए श्रावकों को उलटी पट्टी पढ़ा रखी थी कि उनका शास्त्रों से क्या संबंध ? उन्हें तो शास्त्र पढ़ने ही नहीं चाहिये. कितनी धांधली थी ! और अंधा बना भोला श्रावकसमुदाय "बाबावाक्यम् प्रमाणम्" के जाल में आबद्ध था. अतः लोकाशाह को शास्त्र कठिनता से उपलब्ध हो रहे थे.
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