________________
निर्वेद के स्थायी उदघोष के लिये की है
श्रानन्दप्रसाद दीक्षित : अमृत-काव्यसंग्रह : १०७
"जोबन की झलक चलक तन भूषण की दरसाय चकित करत जे विचारे है,
सुमति भूलाय के भूराय करि लेत वश, कहे अमीर निज समय निहारी सार
तन धन जस लूटी पराधीन पारे है । करत जुलम हिये करुणा न धारे है,
हांसी फांसी डारो नैन बानन ते मारी ऐसी, नारी है ठगोरी ठगी अधोगति डारे हैं ।—सु० श० । कबीर ने 'करमगति टारे नाहि टरी' की पुकार लगाई तो अमीऋषिजी ने भाग्यवाद के आधार पर व्यापारों से विरति और ताला-कु जी की अनावश्यकता पर जोर दिया है और स्याद्वाद की दुहाई दी है. सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह आदि से बचाना, काम-क्रोधादि से अलिप्त रखना जहाँ संतों के उपदेश का विशेष उद्देश्य है, दर्शन- सिद्धान्तों का प्रतिपाद्य है, वहाँ परस्पर के भेद-भाव को नष्ट करके, जाति-पांति और छुआछूत के द्वारा उत्पन्न बाह्याचार का निषेध भी उनका कार्य है या बना रहा है. कबीर ने इस भेद-भाव पर बड़ी कड़ी दृष्टि डाली है और इसे माननेवालों की आड़े हाथों खबर ली है, उनके नग्न रूप को प्रदर्शित करके उन्हें लज्जित किया है । श्रीअमीऋषिजी की दृष्टि से भी शुद्धतावादियों के विचित्राचार बच नहीं सके हैं और उन्होंने शोध-मीमांसा के रूप में प्रकीर्ण छन्दों की रचना कर ही दी है. किन्तु उनकी उक्ति में कबीर की सी कटुता नहीं है. यथा
"मेवा दाख मधु गुड खांड गोल ला हींग, शर्बत मुरब्बा प्राय म्लेच्छ ही बनावे है, डाक्टर की दवा खास बनत बिलात माही, उत्तम कुलीन कोई पीवे अरू खावे है । चाय घृत खावे कीड़े युक्त फल चाबे, औ तमाल पत्र पीते खाते सूग हू न यावे है, अमीरिख पुद्गल के लक्षण न जाने शठ, शोध-शोध गावे कछु भेद नहीं पावे है । " - प्रकीर्णक ।
किन्तु ऐसे स्थलों पर उनकी प्रतिमा केवल योक्ति तक ही सीमित रह गई है, काव्यचातुरी की झलक यहाँ नहीं मिलती. चमत्कार के लिये उन्होंने बिल्कुल ही न लिखा हो, सो नहीं. श्लेष अलंकार के प्रयोग के आधार पर बारहों महीनों का नाम लेकर उपदेश के लिये मार्ग निकाल लेने में अमीऋषिजी भी चमत्कारवादी कवियों से कम नहीं हैं
उदाहरणतः,
"चेत भवि धार ज्ञान संजम वैसाख होय, जेष्ठ पर आषाढ़ समान सुविचारिये, श्रवण श्रागम सुणी धार भद्र पद रोक, मन अश्विन को काती कपट को टारिये । मृगशिर सिंह जैसे काल गही लेगो ताते, पोष पट्काव महामुनि पद चाहिये, फागुण में फाग सखी समता के साथ खेल, श्रमीरिख ऐसे बारे मास को उच्चारिये । "
इसी प्रकार मुनिवर्य मनुष्यों के नामों के द्वारा आध्यात्मिक उपदेश देने में भी नहीं चूकते और काव्य में चमत्कार ले आते हैं. प्रकीर्णक ३७ ४० इसके प्रमाण हैं. इसी चमत्कार प्रदर्शनेच्छा अथवा व्यापक अधिकार-लालसा के कारण उन्होंने प्रकीर्णक तथा प्रश्नोत्तरमाला में सर्व लघुवर्णकाव्य की जैसी रचना की है वैसे ही प्रकीर्णकों में सत्ताईस वकार काव्य भी प्रस्तुत किया है. रूपक और अन्योक्तियाँ लिखने में इनका मन अच्छा रमता है और दृष्टान्त देने तथा कथात्मक शैली में बात कहने के आप अभ्यस्त हैं. 'मधुबिन्दु दृष्टान्त' देते हुए आपने लिखा है
“चडगति कानन में पंथी जीव काल गज, नरभव वट आयु शाखा लटकानो है, कूप है निगोद श्रहि क्रोध मान दम्भ लोभ, अजगर दोय रागद्वेष भीम जानो है । मुझे दिन रैन परिवार मधुमती सम, विद्याधर संत उपदेश फरमानो है, मरिख कहै विषै सुख मधु बिंदु सम, सहे एते संकट में मूढ़ ललचानो है ।”
लोकप्रसिद्ध अथवा पंचतन्त्र में आई हुई कहानियों को लेकर उन्हें सवैया छन्द में काव्यात्मक रूप देकर मुनिजी ने जीवनोपदेश के लिये अच्छा मार्ग निकाल लिया है. इसी प्रकार प्रश्नोत्तरमाला के अंतर्गत अनेक प्रकार के गोलों की कल्पना करके जीव की गति का वर्णन भी किया है. कथा की कथा, उपदेश का उपदेश और काव्य का स्वाद अलग. ऐसे सभी छन्द पठनीय और मननीय हैं. समस्यापूर्तियाँ भी शब्द योजना के कारण उत्पन्न श्रवण-सुखदता और प्रवाह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org