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कमला जीजी: आचार्य श्रासकरणजी : १६
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आपने अधिकतर जीवनचरित वणित किये हैं तथा फुटकर रचनाओं के द्वारा अत्यंत सुन्दर ढंग से जीवननिर्माण की शिक्षा दी है. यथा :आत्मप्रशंसक परनिंदक रचना में आपने दर्शाया है कि स्वयं की प्रशंसा करना तथा औरों की निंदा करना घृणित कार्य है. ऐसा करने वाला व्यक्ति कितना भी दान दे या सत्य बोले, न दानी कहलायेगा और नहीं सत्यवादी :
दानतणो दातार न कहिजे, न कहिजे सतवंत सूरोजी । सोभागवंत तिणने नहिं कहिजे,
जिणने निंद्यारो पूरो जी। इसी प्रकार होनहार तथा कालगति की अमिटता स्पष्ट की है
निश्चय भाव कदे नहिं चूके, भावे करो क्रोड़ प्रकार । लाभ तोटो सुख दुख भुगते, जीव बांध्या ते लार ।
टले नहीं होवणहार ।। काल के क्रूर हाथों से कोई नहीं बच सकता:
काल तणो कोई नहीं भरोसो, तू परमाद में पसियो । विषय थकी जीव चहुँ गत भमियो,
तो पिण भोग रो रसियो। भावाभिव्यक्ति मुनि आसकरण जी एक महान् जैन संत थे, अत: सहज ही आपने संतमहिमा, चौबीस तीर्थकर, सोलह सतियाँ, बीस विहरमान, पर्युषण पर्व, विनय, शील, दान, तप आदि २ विषय अपने लेखन के लिए चुने. जैन परम्परा अपनी कठोर तपस्या के लिए विश्वविश्रुत है. तपश्चर्या के विना पूर्वबद्ध कर्ममल का प्रक्षय नहीं हो सकता. इस तथ्य को ध्यान में रखकर आपने स्पष्ट समझाया है कि तप का महत्त्व अत्यधिक है और उसके विना साधना सफल नहीं हो सकती. तपस्या तो अज्ञानपूर्वक करने पर भी निष्फल नहीं जाती. फिर ज्ञान सहित तप के फल का तो पूछना ही क्या है. उससे तो अनादिकालीन भवभ्रमण का अन्त ही आ जाता है और पुनर्जन्म का चक्र बंद हो जाता है
तप बड़ो संसार में जीव उज्वल थावे रे, कर्म रूप इंधन बले शिव नगरी सिधावे रे। अज्ञान पणे तपस्या करे तो ही निर्फल न जावे रे,
ज्ञान सहित तप जे करे ते गर्भावास में न आवे रे । तप की तरह ही आपने संतों की महिमा दर्शाते हुए बताया है कि संत एक महान् व निस्वार्थ साधक है जो जहाज की तरह खुद तो भवसागर से पार होता ही है, साथ ही अपने सम्पर्क में आने वालों को भी विना कुछ लिए पार कर देता है
जिहाज समाणा संत ऋसेश्वर, बैठे भवि जीव प्राय रे। पर उपगारी मुनि कोई दाम न मांगे, देवे मुगत पहुँचाय रे।
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