SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 305530300300308308080300300 300 300 300 300 300 30 30 30% 300 300 300 १५० : मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ : प्रथम अध्याय पीढ़िन को, पतिते निस्तरि हों.' इसका प्रधान कारण कवि का एक सिद्धान्त विशेष में आस्थावान् बने रहना है. यों एकाध जगह 'रड़वड़ियो जेम गेड़ि दड़ो' या 'पची रह्यो जिम तेल बड़ो', कहकर उसने संसार के परिभ्रमण की कठिनाइयों और परेशानियों का मार्मिक चित्र खींच दिया है. Jain Education कवि भगवान् के साथ अपना कोई विशेष पारिवारिक सम्बन्ध भी नहीं जोड़ता है. कबीर की तरह 'हरि जननी मैं बालक तौरा' या 'हरि मोर पीव मैं राम की बहुरिया' जैसी भावना प्रकट करने का अवसर ही यहाँ नहीं. वह तो स्वयं ईश्वर बनने की साधना में संलग्न है. ईश्वर का अंश बनकर क्यों रहे ? फिर भी सीमंधर स्वामी के साथ 'कागदियो' शीर्षक रचना में वह दाम्पत्य सम्बन्ध जोड़ता है दूर दिसावर जेहनो पिऊ बसेजी, ते नार सुहागण कहाय | महाविदेह में धणिय विराजिया जी तिके निरधणिया किम थाय ॥ ५० ४३-४४ पर यह सम्बन्ध मिलन की खुशी का नहीं, विरह की पीड़ा और विवशता का हैथाड़ा डूंगर ने नदियां वन घणाजी, बीचे विकट विद्याधर ग्राम । वाणी सुनवाने हो आ सकूं नहीं, यां ही लेसु तमारो नाम ॥ पृ० ४४ नीतिप्रधान मुक्तकों में सदाचार, ज्ञान और उपदेश की बातें कही गई हैं. इसकी दो धाराएँ दृष्टिगोचर होती हैं. एक में आत्म-गुणों के महत्व की झलक है तो दूसरी में लौकिक व्यवहार और आचार का निरूपण. आत्मबल के विकास के लिए जिन गुणों पर बल दिया गया है वे हैं धर्माचरण, सम्यक्त्व भाव, क्षमा, ब्रह्मचर्य पालन आदि. आत्म-कल्याण की ओर व्यक्ति को अभिमुख करने के लिए शरीर की नश्वरता और जीवन की क्षणभंगुरता का वर्णन कर साधु-जीवन की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया गया है. इस आध्यात्मिक जागरण अभियान का ओजपूर्ण चित्र देखिये F दया रणसिंघो वाजियो, जागो जागो नर-नार । मुगत नगर में चालणो तुमे, वेगा हुइजो प्यार । पृ० १६० वस्तुतः जो यह तैयारी कर लेता है उसे पारमात्मिक ज्योति का साक्षात् हो जाता है. मोती विखर्या चौक में रे, आधा उलंध्या जाय । ज्योति खुली जगदीश री रे, चतुरां लिया उठाय ॥ - पृ० १६० लोक को भी साधक की दृष्टि से देखा गया है. वह हटवाड़े के कलियुग के दुःखों का घर' 'जहाँ पापनी वातां वल्लभ लागे, मेले की तरह है. कभी यह जग सपना लगता है तो कभी धरम लागे खारो रे'. सच तो यह है कि इस मिनख १. डाभ अणी जल- बिन्दुओं, जेहवी सन्ध्या नो वान । अथिर न जाणों रे थांरो आउखो, जिम पाको पीपल पान ||४|| घड़ियाल नी पर जिम बाजे, घड़ी तिमतिम घटेज श्राव । काल अजाण्यो रे तोने घेरसी, कर कांई धर्म उपाव ॥५॥ जोवन जावे रे घणो उतावलो, जिसो नदी नो बेग अथिर जाणों रे आउखो, तिए में घणा रे उद्वेग ॥७॥ पृ० १४० २. साधु चिंतामण रतन सा चाले दया रस चाल । ज्यां ज्यां जतने सेविया, त्यां त्यां किया निहाल ॥ पृ० ६६ ३. यह मेला जयवाणी, पृ० १२०-२१ ४. यह जग सपना : जयवाणी, पृ० ११५-१३ ५. कलियुग लोक : जयवाणी, पृ० ११८ 超超超超 Priva&Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy