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१४४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-प्रन्थ : प्रथम अध्याय में यह स्थिति या तो केवलज्ञान की प्राप्ति पर निश्चित होती है या किसी विमान (स्वर्ग-लोक) विशेष में पहुंचने पर. इसके बाद 'फलागम' के रूप में मुक्ति की प्राप्ति होती है जहाँ जन्म-मरण का चक्र टूट जाता है. यह पूर्ण आध्यात्मिक स्थिति होती है जहाँ लौकिकता का किंचित् भी अंश नहीं रहता. इन कथा-काव्यों को पढ़ने से पता चलता है कि इनका आधार आगम रहे हैं. ग्रंथ पर कहीं-कहीं कथानक रूढ़ियों का प्रयोग इतना अधिक हुआ है कि कथा का मूल-अंश दब-सा गया है. संक्षेप में कहा जा सकता है कि कवि जयमल्लजी ने अपने इन कथा काव्यों में निम्नलिखित प्रमुख कथानक-रूढियों का प्रयोग किया है - (१) नायक कोई राजा, राजकुमार या गाथापति है. (२) नायक को सांसारिक भोग के सभी-सुख-साधन यथेष्ट मात्रा में सुलभ हैं. सामान्यतः उसके एक से अधिक रानियाँ हैं. (३) तीर्थंकर भगवान् या कोई विशिष्ट मुनिराज गामानुग्राम विहार करते हुए उसकी नगरी में पदार्पण करते हैं. (४) नगरी के प्रमुख उद्यान में ये मुनिवर ठहरते हैं. (५) नायक राजसी ठाट-बाट के साथ सपरिवार उन्हें वन्दन करने के लिए जाता है. (६) तीर्थंकर भगवान् नायक को धर्म-देशना के साथ-साथ उसके पूर्वभव का वृत्तान्त सुनाते हैं. (७) अपने पूर्वभव का वृत्तान्त सुनकर नायक संसार से विरक्त होकर दीक्षा लेने का संकल्प करता है और अपने पुत्र को उत्तराधिकार देता है. (८) दीक्षा के भयंकर कष्टों का वर्णन कर नायक की माता और पत्नी उसे संयम से रोकने का प्रयत्न करती हैं. (8) नायक उन्हें प्रतिबोध देकर दीक्षित हो जाता है, कभी-कभी माता-पिता और पत्नी तक उसके साथ संयम ग्रहण कर लेती है, (१०) साधना-काल में नायक को भयंकर उपसर्ग और परीषह सहन करने पड़ते हैं. (११) इन कठिनाइयों में प्रायः देवता आकर सहायता करते हैं पर तपस्वी साधक अपने बल पर ही उसका मुकाबला करते हैं. (१२) कभी-कभी देवता भी वैक्रिय रूप धारण कर नाना प्रकार के दुःख देकर नायक के संयम की परीक्षा लेते हैं. (१३) साधना में खरा उतरने पर नायक की जयजयकार होती है, उसे केवलज्ञान की प्राप्ति होती है और अन्ततः वह मोक्ष पाता है. काव्य-निर्माण का निर्वाह यहाँ प्रायः सभी कथाओं में हुआ है. इसके दो रूप रहे हैं. इसी जीवन से सम्बन्ध रखने वाला, दूसरा पूर्व-जन्म से सम्बन्धित. कर्मवाद में आस्था रखने के कारण सैद्धान्तिक दृष्टि से भी काव्य-निर्णय की स्थिति को यहाँ सहज आश्रय मिल गया है. यहाँ जो प्रतिनायक है वह पूर्वजन्म में किसी न किसी रूप से नायक द्वारा शोषित, पददलित और पीड़ित रहा है. इसीलिए इस जन्म में वह नायक से बदला लेता है. यहाँ जितने भी पात्र आये हैं वे कुलीन वर्ग से संबंधित हैं. पुरुष पात्र राजा-महाराजा या सेठ आदि हैं. जीवन के प्रातःकाल में पूर्णत: भोगी और गृहस्थी हैं. संध्याकाल में संयम धारण कर निर्वाणपथ के पथिक बनते हैं. निम्न वर्गों में कुम्भकार का प्रायः वर्णन मिलता है. आचार-विचार में ये बारह व्रतधारी श्रावक-से हैं. सद्दालपुत्र की गिनती आदर्श श्रावकों में की जाती है. उदाई राजा को एक कुंभकार ने ही ठहरने के लिए राजाज्ञा के विरुद्ध भी साहस करके स्थान दिया था. स्त्रीपात्रों में माता और पत्नी के रूप अधिक निखर कर सामने आये हैं. राजमती का चरित्र उस नारी का चरित्र है जिसने यौवन की देहरी पर प्रेम को निमन्त्रित किया था, वह पाता हुआ दिखाई भी दिया पर न आया. उसके बाद विरह की अनन्त साधना और फिर योग धारण. देवकी सात-सात पुत्रों को जन्म देकर भी अपने मातृत्व को तृप्त न कर
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