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नरेन्द्र भानावत : प्रा० जयमल्लजी : व्यक्तित्व-कृतित्व : १३६ ५० वर्ष (जीवन-पर्यन्त) तक ये लेटकर न सोये. इस सतत जागरूकता ने इन्हें अंतर्मुख बनाया और इनकी अंतष्टि ने काव्य का स्वरूप पाया जो 'स्वान्तःसुखाय' बनकर ही नहीं रहा वरन् 'परान्तःसुखाय' भी बना. सं० १८०४ में आसौज सुदी १० शुक्रवार को आचार्य भूधरजी का स्वर्गवास हुआ. उनकी मृत्यु के बाद ये आचार्य' बने. इनका व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि इनकी आख्या पर ही इनके सम्प्रदाय का नामकरण हो गया. लगभग ५० वर्ष तक आचार्य अवस्था में धर्म-प्रचार करते रहे. अंतिम वर्षों में ये अस्वस्थ रहे. अंत में संवत् १८५३ की वैशाख शुक्ला चतुर्दशी को नागौर में ३१ दिन के संथारे से स्वर्गवास हुआ. शिष्यसम्पदा-इनके शिष्यों की संख्या ५१ थीं श्रीरायचन्द्रजी महाराज को इन्होंने अपना पट्टघर बनाया इनका सम्प्रदाय 'जयमल्लसम्प्रदाय' के नाम से विख्यात हुआ जो आज भी प्रचलित है. विहारक्षेत्र—जैन सन्तों का वर्षावास के अतिरिक्त एक जगह ठहरने का विधान नहीं है. तदनुसार वे आठ माह तक ग्रामानुग्राम विचरण कर जन-जन को धर्मोपदेश देते रहते थे. आचार्य श्रीजयमल्लजी का विहारक्षेत्र प्रधानतः राजस्थान रहा है. राजस्थान के अतिरिक्त दिल्ली, आगरा, पंजाब व मालवा में भी विचरते रहे. जन-सम्पर्क और धर्म-प्रचार-आचार्य जयमल्लजी अपने समय के प्रमुख सन्तों में से थे. इनका साधारण जनता से लेकर राजवर्ग तक सम्पर्क था. राजवर्गीयों द्वारा आखेटचर्या आदि में होने वाली हिंसा से, मुनि श्री ने अपनी साधनासिक्त ओजस्विनी वाणी द्वारा न केवल उन्हें विरत ही किया अपितु उनमें से अनेकों को अपना दृढ़ अनुयायी भी बना लिया. महाराजाओं में जोधपुर नरेश अभयसिंह जी आपसे तथा आचार्य भूधरजी से अत्यधिक प्रभावित थे. जब ये पीपाड़ में विराज रहे थे तब इनकी गौरव-गाथा सुनकर महाराजा ने अपने दीवान रतनसिंह भंडारी को भेजकर (इनको) जोधपुर पधारने की विनती करवाई. जब आप जोधपुर पधारे तब महाराजा अकेले ही दर्शन को नहीं आये वरन् अपनी रानियों और सरदारों को भी शाही ठाट से लाये. यही नहीं सं० १७९१ में जब ये दिल्ली विराज रहे थे तब जोधपुर नरेश ने ७ राजाओं के साथ आपका उपदेश श्रवण किया. जयपुर-नरेश तो इनकी यश-गाथा से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने शाहजादे को भी यह शुभ संवाद सुनाया. शाहजादे के हृदय में मुनि-दर्शन की इच्छा बलवती हुई. उसने दर्शन कर हिंसा अहिंसा सम्बन्धी कई प्रश्न किये और उनका समुचित समाधान पाकर निरपराध प्राणियों का वध न करने की प्रतिज्ञा की. जोधपुर-नरेश के साथ ही कविवर करणीदानजी ने भी इनके दर्शन किये थे. जैसलमेर में आप के पधारने पर वहाँ कुछ विरोधियों ने आपकी मूर्ति बनाकर उस पर धूल उछाली. यह समाचार सुनकर आपने मुस्करा कर कहा-मेरे कर्म धुल रहे हैं. राजा ने अपने किले में इनका ससम्मान स्वागत किया और साधुचर्या की जानकारी पाकर प्रसन्नता प्राप्त की. उसने अपने ग्रंथ-भण्डार भी इन्हें बतलाये.
१. सं० १८०५ अक्षय तृतीया को जोधपुर में ये आचार्य बने. २. घासीरामजी, सूरतरामजी, गजराजजो, तुलसीदासजी, बगतमलजी, उदोजी, खेमचंदजी, पृथ्वीराजजी श्रादि इनके प्रमुख शिष्य थे. ३.रायचदन्जी का जन्म सं० १७१६ में आसौज सुदि ११ जोधपुर में विजयराजजा धालीवाल के यहां हुआ था. सं० १८१४ की आपाद शुक्ला ११ को पीपाड़ शहर में गोवर्द्धणदासजी महाराज से इन्होंने दीक्षा अंगीकृत की. सं०१८६८ में इनका स्वर्गवास हुआ. ये भी आचार्य
जयमल्लजी को तरह प्रतिभाशाली कवि थे. ४. इनका शासनकाल सं० १७८१ से १८१६ तक रहा: जोधपुर राज्यका इतिहास, द्वितीय खण्ड-ओझा. ५. पूज्यगुणमालाः चौथमल्लजी म०पृ०६०-६३. ६. वही : पृ० ६६-७६. ७. ये कविया शाखा के चारण मेवाड़ के शलवाड़ा गांव के रहने वाले थे. इन्होंने 'सूरजप्रकाश' नाम का बड़ा ग्रंथ लिखा है जिसमें ७५००
छंद हैं. महाराजा अभयसिंहजी ने इन्हें लाखपसाव तथा कविराजा की उपाधि दी थी. ८. पूज्य गुणमाला : चौथमल्लजी म० : पृ०८२. १. वही : पृ० ७८-८१ ।
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