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डा. नरेन्द्र भानावत, एम० ए०, पी-एच. डी, साहित्यरत्न, हिन्दी-विभाग राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर. संत कवि आचार्य जयमल्लजी : व्यक्तित्व और कृतित्व ।
भारतीय वाङ्मय की वाटिका को सजाने-संवारने का जितना अधिक श्रम और तप जैन-साधक मनीषियों ने किया है उतना शायद ही किसी एक धर्मविशेष के साधकों ने किया हो. काव्य, कोश, अलंकार, ज्योतिष, आख्यान, वैद्यक, इतिहास, रूपक-सभी ओर इन दृष्टिसम्पन्न मालियों की दृष्टि दौड़ी है. इनके विस्तृत लोक-ज्ञान और अगम शास्त्रीय विवेक ने कला और विज्ञान के क्षेत्रों में रंग-विरंगे चटकीले फूल खिलाये हैं. ये सुरभित पुष्प अपने सौन्दर्य से सबको आकर्षित करते हैं पर रूप-मोह में नहीं डुबोते, अपने सौरभ से सबको मंत्र-मुग्ध तो करते हैं पर विलास की निद्रा में नहीं सुलाते. इन फूलों का सात्विक परिमल मन को पवित्र, हृदय को निष्कलुष और आत्मा को परमात्मोन्मुख बनाता है. हिन्दी साहित्य के इतिहास का अवगाहन करने पर सखेद आश्चर्य होता है कि इतिहास-लेखकों ने इन फूलों (साहित्य सम्पदा) का उचित मूल्यांकन नहीं किया. साहित्य के ऐतिहासिक विकासक्रम में इनके अस्तित्व तक की अवमानना की. इस स्थिति का एक कारण यह भी रहा कि जैन साहित्य उपाश्रयों और मन्दिरों के गर्भ-गृहों में प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों के रूप में लावारिस सम्पत्ति की तरह अस्त-व्यस्त बिखरा पड़ा रहा. न जाने कितने यशस्वी साहित्यकार और भावुक भक्त कवि काल-कवलित हो गये. दीमक के ग्रास बन गये ! अब समय आया है कि प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों का सम्यक् अध्ययन अनुशीलन कर हिन्दी-विद्वानों के सामने जैन साहित्य का प्रामाणिक सर्वांग-सम्पूर्ण इतिहास प्रस्तुत किया जाय. यों जैन साहित्य के इतिहास-लेखन के स्फुट प्रयत्न यदा-कदा अवश्य होते रहे. स्वर्गीय नाथूराम 'प्रेमी' और मोहनलाल दलीचन्द देसाई के प्रयत्न इस दिशा में उल्लेखनीय हैं. श्रीकामताप्रसाद जैन ने भी इधर 'हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास' लिखा है. बीकानेर के श्रीअगरचन्दजी नाहटा की लेखनी से कई अज्ञात जैन ग्रंथकार प्रकाश में आये हैं. पर ये सारे प्रयत्न 'ऊंट के मुह में जीरा' जैसे हैं. जैन धर्म विविध शाखा-प्रशाखाओं में विभक्त है. श्वेताम्बर स्थानकवासी सम्प्रदाय, जैनधर्म की ऐतिहासिक एवं साहित्यिक दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण परम्परा रही है. इस सम्प्रदाय में तपःपुंज बहुमुखी प्रतिभा-सम्पन्न अनेक आचार्य और प्रभावक कवि हुए हैं. दिगम्बर सम्प्रदाय के कतिपय कवियों का उल्लेख तो इधर के साहित्य-इतिहास में हुआ है पर स्थानकवासी परम्परा के कवियों का नामोल्लेख जैन साहित्य के इतिहासग्रंथों तक में नहीं मिलता. यह स्थिति विस्मयजनक ही नहीं भयावनी भी है. हमारे आलोच्य कवि आचार्य जयमल्लजी का सम्बन्ध इसी स्थानकवासी परम्परा से है.
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