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विभिन्न लेखक : संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ : १३
किसी भी प्रकार के प्रदर्शन की भावना ने उन्हें स्पर्श तक नहीं किया था. वे अपने आप में जो कुछ भी थे, उससे
अन्यथा प्रदर्शित करने की वृत्ति उनमें नहीं थी. सादगी, सरलता एवं शिशु की-सी शुचिता उनके जीवन की सर्वोपरि विशेषता थी, जिसने उनकी साधना में प्राणों का संचार कर दिया था. यद्यपि मेरा उनके साथ विशेष वार्तालाप नहीं हुआ तथापि उनके उच्च व्यक्तित्व का कुछ ऐसा प्रभाव मेरे मन पर पड़ा कि वह विस्मृत नहीं किया जा सकता. आज भी वह भद्रात्मा मेरी कल्पना में जैसे सशरीर अंकित है.
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श्रीगुलाबचन्द्रजी जैन, दिल्ली. महामना मुनि श्रीहजारीमलजी
सन् १९३७ के वर्षाकाल की बात है. जोधपुर से दिल्ली वापस आते हुए कुचेरा ग्राम (मारवाड़) में श्रीमधुकरजी म. तथा उनके गुरुतुल्य ज्येष्ठ-गुरुभाई वयोवृद्ध मुनिराज श्रीहजारीमलजी म. का परिचय प्राप्त करने का सौभाग्य मिला. प्रथम परिचय में ही आपकी सरलता, सज्जनता, साधुता और विद्याप्रेम की असाधारण छाप मेरे मन पर पड़ी. इस घटना को २६-२७ वर्ष हो गए, अब भी ऐसा मालूम पड़ता है कि मानो यह घटना अभी घटी है. फिर तो अनेक बार जब-जब मेरा मारवाड़ जाना होता. तब-तब मैं प्रायः आपके दर्शन करने का मन में उत्साह रखता और फिर दर्शन करके ही लौटता ..! आपके विद्याप्रेम और अपने साधुओं को विद्या-अध्ययन कराने और कलात्मक लेखन की प्रेरणा देने का प्रत्यक्ष प्रमाण तो उस समय मिला जब पंडित बेचरदासजी के द्वारा मुझे लगभग पांच सौ वर्ष पुरानी स्वर्णाक्षरों की चित्रांकित संस्कृत भाषा में एक पुस्तक 'कालकाचार्य की कथा' प्रदान की. इसके अन्तिम पृष्ठ पर अपने ज्येष्ठ-गुरुभ्राता मुनिराज श्रीब्रजलालजी के हाथ से सुन्दर हिन्दी भाषा के अक्षरों में स्नेहपूर्ण उपहार प्रदान करने के आशीष वचन अंकित कराये. पुस्तक तो आज भी ऐसी मालूम होती है कि मानो अभी लिखकर तैयार की गई है. पुरातत्त्ववेत्ता और भारतीय तथा विदेशी विद्वानों ने जब इस ग्रंथ को देखा तब यही कहा कि ऐसी पुस्तक गुजरात और राजस्थान के प्राचीन जैनभण्डारों में भी देखने में कम आती है, यह पुस्तक भारतीय एवं जैन-कला का उच्चतम प्रतीक है. इसके थोड़े समय बाद जब मैं अपने मित्र फ्रांसीसी प्रोफेसर ओलीवर लुकुम्ब के साथ आबू पहाड़ के प्राचीन जैनमंदिरों को देखकर लौट रहा था तो मैं पंडित बेचरदासजी से मिलने ब्यावर जैन-गुरुकुल गया. वहाँ भी मुनिश्री के दर्शन करने और वार्तालाप करने का अवसर मिला. आपसे धर्म-कार्यों के संबंध में अनेकों बार पत्र व्यवहार करने का भी गौरव प्राप्त हुआ. इस लम्बी अवधि में आप से कितनी ही बार कई स्थानों में (गुलाबपुरा, अजमेर आदि) में भेंट करने का भी अवसर मिला. यह आप ही की कृपा का परिणाम है कि आज मुनि श्रीमिश्रीमलजी 'मधुकर' प्राकृत, संस्कृत और हिन्दी भाषा के योग्य विद्वान् और कवि बन सके हैं । आप का हृदय अति कोमल, मधुर, निष्कपट और वात्सल्यमय था. सम्प्रदाय में रहते हुए भी वे साम्प्रदायिक संकीर्णता से कोसों दूर थे. उम्र में बहुत अधिक, कद लम्बा और वर्ण गौर था. व्यवहार में ऊँच-नीच या छोटे-बड़े का भेद किंचित् भी देखने में नहीं आता था. वे पुराने जमाने के मुनिराज थे किन्तु विचारों में आज के नवयुवक साधुओं से पीछे न थे. आपके आचार-व्यवहार में दृढ़ता और प्राणिमात्र के प्रति दया के भाव भरे थे. आडम्बर
और ढोंग से दूर थे. वे मारवाड़ के प्रसिद्ध जैन-मुनिराज ऋषि श्रीजयमलजी महाराज की परंपरा के उज्ज्वल नक्षत्र थे. ऐसे महान् सन्त के प्रति मैं भी अपनी श्रद्धांजलि अर्पण करके अपने आपको कृतार्थ समझता हूँ साथ ही प्रार्थना करता हूँ कि मुनिराज श्री ब्रजलालजी और श्रीमिश्रीमलजी 'मधुकर' आपके चरणचिह्नों पर चलकर वीरशासन की सेवा करने में आपही की तरह सामर्थ्यवान् बनें.
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