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________________ 落落落落落落落落落落瓷器器游游游游办法器 ८२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय ने कमल की उपमा से समलंकृत किया है, अतः उससे ललित शब्दावली ही निकलनी चाहिये. स्वामीजी महाराज जब भी बोलते थे तब ऐसा ही प्रतीत होता था कि उनकी वाणी में मिश्री घुली हुई है. वे स्वयं कम बोलना पसन्द करते थे. मौन के सम्बन्ध में उनके विचार मननीय थे. उन्होंने एक बार कहा था- "मौन केवल धर्म ही नहीं अपितु स्वास्थ्य के लिए भी एक अच्छा टॉनिक है !" स्वामी जी महाराज का रहन-सहन बड़ा ही सादा एवं सीधा था. जहाँ तक शुद्ध खादी के वस्त्र उपलब्ध होते, वे उन का ही उपयोग करना श्रेयस्कर समझते थे. छोटा-सा और फटा-सा वस्त्र शरीर पर यों ही डाल लेते थे. कभी कोई उन्हें कहता तो मुस्करा कर कह देते-'भाई, शरीर ही तो ढंकना है. वस्त्र नया हो या पुराना हो, छोटा हो या बड़ा !' स्वामीजी महाराज की स्मरणशक्ति विलक्षण थी. उन्हें पूज्य जयमलजी म०, आचार्य देवचन्दजी, उपाध्याय यशोविजयजी, आनन्दघनजी, विनयचन्दजी आदि अनेक सन्तों के अध्यात्मरस से छलछलाते हुये पद कंठस्थ थे. उनका गला भी सुरीला था, जब वे गाते तो श्रोता झूम उठते थे. रामायण, महाभारत आदि के प्रसंगों को बहुत ही सुन्दर ढंग से सुनाया करते थे. इसके अतिरिक्त कर्मग्रन्थ, तत्त्वार्थसूत्र व आगम के सुन्दर स्थल उनके स्मृतिपट पर नाचते रहते थे. राजस्थानी लोकथाएँ, ओखाणे, चुटकुले आदि भी उन्हें बहुत से स्मरण थे. जब वे उन्हें सुनाते थे तब थोता हँस-हँस कर लोट-पोट हो जाते थे. आज स्मृति के झरोखे से अनेक स्मृतियाँ झांक रही हैं. उन सभी पावन स्मृतियों को इस लघु संस्मरण में पिरोना कठिन है. उनकी स्मृति तो सदा बनी ही रहनी चाहिए. श्रीज्ञान मुनिजी महाराज दिव्य पुरुष के दर्शन सन्त का वेष लेने वाले व्यक्तियों की संसार में कमी नहीं है. अकेले भारत में ५६ लाख के लगभग साधु सुने जाते हैं. साधुओं की इतनी विशाल संख्या होने पर भी लोगों का आचार-विचार समुन्नत न होकर अवन्नत होता चला जा रहा है. यह आश्चर्य की बात है. अकेला सूर्य अंधकार को नहीं छोड़ता फिर जहाँ लाखों सूर्य हों तब भी अंधकार बना रहे, तो मानना पड़ेगा कि सूर्य अपने सूर्यत्व से विहीन हो गया है, उसकी अंधकार को नष्ट करने की शक्ति समाप्त हो गई है. ठीक यही बात आज के साधु वर्ग पर भी लागू होती है. आज साधु वेष अवश्य है पर वास्तविक साधु बहुत कम हैं. साधूता के नाम पर आज ढोंग अधिक पनप रहा है. ऐसे वेषधारी साधुओं से समाज एवं राष्ट्र का हित सम्पन्न नहीं हो सकता. समाज एवं राष्ट्र का हित उन्हीं साधु-सन्तों से संभव है, जो मोह-माया के प्रावरण को दूर हटा कर अहिंसा, संयम और तप के विराट् साधना-पथ पर-बढ़ते जा रहे हैं, तथा आत्म भावना एवं जनहित-कल्पना में अपनी समस्त शक्तियाँ निछावर कर देते हैं. ऐसे सन्तों का दर्शन कहीं सौभाग्य से ही होता है. संस्कृत के एक आचार्य को यह कहना पड़ा निज-हृदि विकसन्तः, सन्ति सन्तः कियन्तः ? अर्थात् अपने हृदय में गुणों का विकास करने वाले सन्त मुनि कितने हैं ? उत्तर स्पष्ट है-बहुत थोड़े हैं. चाणक्य नीति में इसी सत्य को समझाया हैसाधवो न हि सर्वत्र, चन्दनं न 'बने-वने'.- हर किसी जंगल में चन्दन के वृक्ष नहीं मिला करते हैं. वैसे ही हर स्थान पर साधु पुरुष भी नहीं मिला करते हैं. हमारे श्रद्धेय श्रीहजारीमलजी म. ऐसे ही त्यागी, वैरागी मुनिवर थे. वैराग्य जप-तप के विशाल सरोवर में वे गहरी डुबकी लगाने वाले सन्त थे. त्याग की उज्ज्वलता के साथ-साथ उनका अंतर्जगत् बाहर से भी अधिक सुन्दर था, समुज्ज्वल RAURAHAANTITARAT RATOPATHAKALINSAAMANAPAN AME Ve SHIDD ODIDI SOLora Jain Ede eMary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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