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जयशेखर की यही चार कृतियाँ प्रख्यात हैं। कुमारसम्भव उनकी सर्वोत्तम रचना है, उनकी कीर्ति का अाधारस्तम्भ !
जयशेखर के शिष्य धर्मशेखर ने कुमारसम्भव पर टीका सम्वत् १४८२ में अजमेर मण्डल के पद्यर (?) नगर में लिखी थी, यह टीका-प्रशस्ति से स्पष्ट है।
देशे सपादलक्षे सुखलक्ष्ये पद्यरे पुरप्रवरे ।
नयनवसुवाधिचन्द्र वर्षे हर्षेण निर्मिता सेयम् ॥ अतः सं. १४८२ कुमारसम्भव के रचनाकाल की उत्तरी सीमा निश्चित है। धम्मिलचरित की पश्चाद्वर्ती रचना होने के कारण इसका प्रयन स्पष्टतः सम्वत् १४६२ के उपरांत हा होगा। इन दो सीमा-रेखाओं का मध्यवर्ती भाग, सम्बत् १४६२-१४८२ (सन् १४०५-१४२५) कुमारसम्भव का रचनाकाल है ।
कथानक:
कुमारसम्भव के ग्यारह सर्गों में आदि जैन तीर्थंकर ऋषभदेव के विवाह तथा उनके पुत्र-जन्म का वर्णन करना कवि को अभीष्ट है । काव्य का प्रारम्भ अयोध्या के वर्णन से होता है, जिसका निर्माण धनपति कुबेर ने अपनी प्रिय नगरी अलका की सहचरी के रूप में किया था। इस नगरी के निवेश से पूर्व, जब यह देश इक्ष्वाकुभूमि के नाम से ख्यात था, आदिदेव ऋषभ युग्मिपति नाभि के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए थे। सर्ग के शेषांश में उनके शैशव, यौवन, रूप-सम्पदा तथा विभूति का चारु चित्रण है। देवगायक तुम्बरु तथा नारद से यह जानकर कि ऋषभ अभी कुमार हैं, सुरपति इन्द्र उन्हें वैवाहिक जीवन में प्रवृत करने के लिये तुरन्त प्रस्थान करते हैं। तृतीय सर्ग में इन्द्र नाना युक्तियां देकर ऋषभदेव को उनकी सगी बहनों-सुमंगला तथा सुनन्दा-से विवाह करने को प्रेरित करते हैं। उनके मौन को स्वीकृति का द्योतक मानकर इन्द्र ने तत्काल देवताओं को विवाह की तैय्यारी करने का आदेश दिया। इसी सर्ग में सुमंगला तथा सुनन्दा के विवाहपूर्व अलंकरण का विस्तृत वर्णन है । पाणिग्रहणोत्सव में भाग लेने के लिये समूचा देवमण्डल भूमि पर उतर पाया, मानो स्वर्ग ही धरा का अतिथि बन गया होगा। स्नान-सज्जा के उपरान्त प्रादिदेव जंगम प्रासाद तुल्य ऐरावत पर बैठ कर वधूगृह को प्रस्थान करते हैं। चौथे तथा पांचवे सर्ग में तत्कालीन विवाह-परम्पराओं का सजीव चित्रण है। पाणिग्रहण सम्पन्न होने पर ऋषभ विजयी सम्राट् की भाँति घर लौट पाते हैं। यहीं दस पद्यों में उन्हें देखने को लालायित पुरसुन्दरियों के सम्भ्रम का रोचक वर्णन है । छठा सर्ग रात्रि, चन्द्रोदय, षड्ऋतु आदि वर्णनात्मक प्रसंगों से भरपूर है । ऋषभदेव नवोढा वधुओं के साथ शयनगृह में प्रविष्ट हुए जैसे तत्त्वान्वेषी मति-स्मृति के साथ शास्त्र में प्रवेश करता है। इसी सर्ग के अन्त में सुमंगला के गर्भाधान का उल्लेख है । सातवें सर्ग में सुमंगला को चौदह स्वप्न दिखाई देते हैं। वह उनका फल जानने के लिये पति के वासगृह में जाती है । आठवें सर्ग में ऋषभ तथा सुमंगला का सवाद है। सुमंगला के अपने आगमन का कारण बतलाने पर ऋषभदेव का मन-प्रतिहारी समस्त स्वप्नों को बुद्धिबाह से पकड़ कर विचार-सभा में ले गया और विचार
न्थन कर उन्हें फल रूपी मोती समर्पित किया। नवें सर्ग में ऋषभ स्वप्नों का फल बतलाते हैं । यह जानकर कि इन स्वप्नों के दर्शन से मुझे चौदह विद्यानों से सम्पन्न चक्रवर्ती पुत्र कि प्राप्ति होगी, सुमंगला आमन्दविभोर हो जाती है । दसवें सर्ग में वह अपने वासगृह में आती है तथा सखियों को समूचे वृत्तान्त से अवगत करती है। ग्यारहवे सर्ग में इन्द्र सुमंगला के भाग्य कि सराहना करता है और उसे बताता है कि अवधि पूर्ण होने पर है
અને શ્રી આર્ય કલ્યાણગૌતમસ્મૃતિગ્રંથ
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