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जैनधर्म के बड़े केंद्र रहे हैं। जिनके लिए 'आघाटे मेदपाटे क्षितितल-मुकुटे चित्रकूटे त्रिकूटे, कह कर स्तवनों में तीर्थस्थान रूप में मेवाड़की और चित्तौड़की स्तुति की गई है ।
इसी ग्रायड नगर में सं. १२८५ में श्रीमद् जगच्चंद्रसूरि द्वारा तपागच्छ का प्रादुर्भाव हुआ । यहां के परमार और गहलोत राजाओं के समय कई जैनमन्दिर बने और कई ग्रन्थों की रचना हुई और श्रावकों ने कई ग्रंथ लिखवाये | जैनमन्दिरों को कई मंडपिकाओं से कर दिलवाये । मज्भिमिया नगरी जो चित्तौड़ के पास है इसका नाम अर्धमागधी भाषा का है जिसका अर्थ ही पवित्र और सुंदर नगर होता है । कहते हैं कि गौतमस्वामी यहां अपने शिष्यों को लेकर आये थे और जब मथुरा में जैनधर्म की दूसरी संगिति हुई थी तब यहां के मज्झमिया संघने वहाँ प्रतिनिधित्व किया था । मज्झमिया संघ उस समय भारत के प्रसिद्ध जैनसंघों में स्थान रखता था । इसी नगरीका बौद्धकालीन जयतुरका दुर्ग पूर्व मध्यकाल में चित्ततौर - चित्तौड़ होकर जैनधर्म का तीर्थस्थल और जैनधर्मप्रचार का राजस्थान, गुजरात व मालबाका मुख्य केंद्र बन गया। जैन जगतके मार्तण्ड सिद्धसेन उज्जैन से भोज की सीमा को छोड़ साधना के लिए चित्तौड़ आये । साधना के बाद ही वे जैनन्याय के अलौकिक ग्रंथ लिख सके और धर्म आदि पर अनेकों ग्रंथों की रचना कर दिवाकर बन गये ।
भारत के महान तत्त्वविचारक, समन्वयके श्रादि पुरस्कर्ता, अद्वितीय साहित्यकार एवं शास्त्रकार हरिभद्रसूरिजी पहले वेदवेदांग के प्रकांड पंडित थे । जैनधर्म स्वीकार कर, जैनधर्म की उन्होंने जो देन दी है, जैन समाज सदा के लिए उनका ऋणी रहेगा । वे इसी चित्तौड़भूमि के नररत्न थे । श्रांतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त जैन साध्वी याकिनी महत्तराजी हरिभद्र की धर्मगुरु थीं वे इसी चित्तौड़ की निवासिनी थीं । प्रसिद्ध जैनाचार्य उद्योतनसूरि, सिद्धर्षि, जिनदत्तसूरि आदि की भी यह चित्तौड़ नगरी वर्षों तक धर्म प्रसार की भूमि ही नहीं किंतु उनकी विकास भूमि भी रही है और दीक्षितभूमि भी । हजारों स्त्रीपुरुषों को इन आचार्यों के द्वारा यहाँ जैनधर्म में दीक्षित किया था ।
जैनधर्म में चैत्यवासियों में शिथिलाचार बढ़ कर अनाचार फैलने लगा तो गुजरातसे जिनवल्लभसूरिने सं. १९४९ के आसपास चित्तौड़ पर ग्राकर शिथिलाचार के विरुद्ध ग्रांदोलन छेड़ दिया और शुद्ध स्वरूपमें विधिगच्छ की स्थापना में अपने आप को लगा दिया । इसमें उन्हें अनेक प्रकार की यातनाएं सहन करनी पड़ी और संगठित प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा। पर वे अपने निश्चय से नहीं डिगे और प्रचारकार्य में लगे रहे ।
श्री जिनवल्लभसूरि को प्राचार्यपद भी चित्तौड़ में दिया गया और उसी साल याने सं. १९६७ में उनका परलोकगमन हो गया ।
जिस शिथिलाचार और चैत्यवासियोंके अनाचारको मिटानेका बीड़ा खरतरगच्छने उठाया था उसे फिर अंचलगच्छ और तपागच्छ ने भागीदारी कर उसको सदैव के लिए समाप्त कर दिया। इसके साथ अंचलगच्छने लोगों को मद्यमांस के सेवन से छुड़ा लाखों मनुष्यों को जैनधर्म में दीक्षित किया ।
राजस्थानके राजाओं पर अंचलगच्छ का बड़ा प्रभाव रहा। राजस्थान में प्रतिहार, सोलंकी, चौहाण, राठोड़ और गहलोत वंश के ही अधिकतर राज्य रहे और राजस्थानमें इनका सबसे अधिक वर्चस्व रहा । अंचलगच्छ के ( विधिपक्षगच्छ के) प्रवर्तक प्राद्य प्राचार्यप्रवर श्री प्रर्यरक्षितसूरिने सं. १९६९ से सं.
શ્રી આર્ય કલ્યાણ ગૌતમ સ્મૃતિગ્રંથ
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