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________________ [१२] उल्लेख मिलता है। इतिहासकार अोझाजी ने विक्रम संवत की दूसरी शताब्दी के मिले शिलालेखों के आधार पर कहा है कि यहां पर राजा संप्रति के पहले भी जैन धर्म का प्रचार था। मौर्यों के पश्चात् क्षत्रपों का इस प्रदेश पर अधिकार था । महाक्षत्रप रुद्रदामा के जूनागढ़ वाले शिलालेख से यह ज्ञात होता है कि यह मरुराज्य सन् ५५३ ई. में उसके राज्य के अन्तर्गत था। जीरावला पार्श्वनाथ मन्दिर वि. सं. ३२६ में कोडीनगर सेठ अमरासा ने बनाया था। यह कोडीनगर शायद आज के भीनमाल के पास स्थित कोडीनगर ही है जो काल के थपेड़ों से अपने वैभव को खो चुका है। कोडीनगर तट पर सिन्धु घाटी की सभ्यता के अवशेष प्राप्त हो सकते हैं। ऐसी जनश्रति है कि इस मन्दिर की पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा जमीन में से निकली है। इसका वृतान्त इस प्रकार मिलता है :-एक बार कोडीग्राम के सेठ अमरासा को स्वप्न आया। स्वप्न में उन्हें भगवान् पार्श्वनाथ के अधिष्ठायक देव दिखे। उन्होंने सेठ को जीरापल्ली शहर के बाहर धरती के गर्भ में छिपी हुई प्रतिमा को स्थापित करने के लिये कहा । यह प्रतिमा गांव के बाहर की एक गुफा में जमीन के नीचे थी। अधिष्ठायक देव ने सेठ अमरासा को इस भूमि स्थित प्रतिमा को उसी पहाड़ी की तलहटी में स्थापित करने को कहा । सुबह उठने पर सेठ ने स्वप्न की बात जैनाचार्य देवसूरीश्वरजी, जो कि उस समय वहां पर पधारे हुये थे, को बतायी। प्राचार्य देवसूरिजी को भी इसी तरह का स्वप्न पाया था। यह बात सारे नगर में फैल गई और नगरवासी इस मूर्ति को निकालने के लिए उतावले हो गये । प्राचार्य देवसूरि और सेठ अमरासा निर्दिष्ट स्थान पर गये और बड़ी सावधानी से उस मूर्ति को निकाला। प्रतिमा के निकलने की खबर सुनकर आसपास के क्षेत्रों के लोग भगवान के दर्शन के लिये उमड़ पड़े। कोडीनगर और जीरापल्ली के श्रावकों में उस प्रतिमा को अपने-अपने नगर में ले जाने के लिये होड़ लग गई। परन्तु प्राचार्य देवसूरिजी ने अधिष्ठायकदेव की आज्ञा का पालन करते हुए प्रतिमा को जीरापल्ली में ही स्थापित करने का निश्चय किया। विक्रम संवत् ३३१ में प्राचार्य देवसरि ने इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा की। विक्रम संवत् ६६३ में प्रथम बार इस मन्दिर का जीर्णोद्धार हुअा। जीर्णोद्धार कराने वाले थे सेठ जेतासा खेमासा । वे १० हजार व्यक्तियों का संघ लेकर श्री जीरावला पार्श्वनाथ भगवान् के दर्शन के लिये आये थे। मन्दिर की बुरी हालत को देखकर उन्होंने जैन आचार्य श्री मेरूसूरीश्वरजी महाराज, जो उन्हीं के साथ आये थे, को इस मन्दिर के जीर्णोद्धार करने की इच्छा प्रकट की। प्राचार्य श्री ने इस पुनीत कार्य के लिये उन्होंने अपनी प्राज्ञा प्रदान कर दी। चौथी शताब्दी में यह प्रदेश गुप्त साम्राज्य के अन्तर्गत था। गुप्तों के पतन के पश्चात् यहां पर हणों का अधिकार रहा। हूणों के सम्राट तोरमाण ने गुप्त साम्राज्य को नष्ट कर अपना प्रभाव यहां पर स्थापित किया। हुण राजा मिहिरकुल और तोरमाण के सामन्तों द्वारा बनाये हुये कई सूर्य मन्दिर जीरावला के आसपास के इलाकों में पाये हुये हैं जिनमें वरमारण, करोडीध्वज (अनादरा), हाथल के सूर्य मन्दिर प्रसिद्ध हैं। हाथल का सूर्य मन्दिर तो टूट चुका है, पर करोडीध्वज और वरमारण के सूर्य मन्दिरों की प्रतिष्ठा प्राज भी अक्षण्ण है। वरमारण का सूर्य मन्दिर तो भारतवर्ष के चार प्रसिद्ध सूर्य मन्दिरों में से एक है। गुप्तकाल के जैनाचार्य हरिगुप्त तोरमाण के गुरु थे। इनके शिष्य देवगुप्तसूरि के शिष्य शिवचन्द्रगणि રહી છેશ્રી આર્ય કલ્યાણ ગૌતમસ્મૃતિગ્રંથ છે Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012034
Book TitleArya Kalyan Gautam Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalaprabhsagar
PublisherKalyansagarsuri Granth Prakashan Kendra
Publication Year
Total Pages1160
LanguageHindi, Sanskrit, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size35 MB
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