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राणादे के रासका सार
राजड़ साह ने स्वर्ग से आकर मानवभव में सर्व सामग्री संपन्न हो बड़े बड़े पुण्यकार्य किये। अपनी अर्धांगिनी राणादे के साथ जो सुकृत किये वे अपार हैं; उसने सामिक वात्सल्य करके ८४ ज्ञाति वालों को जिमाया। इसमें सतरह प्रकार की मिठाई-जलेबी, पैड़ा, बरफी, पतासा, घेवर, दूधपाक, साकरिया चना, . इलायचीपाक, मरली, अमृति, मोतीचूर, साधूनी इत्यादि तैयार की गई थीं। प्रोसवाल, श्री माली आदि महाजनों की स्त्रियां भी जिमनवार में बुलाई गई थीं। इन सबको भोजनोपरांत पान, लवंग, सुपारी, इलायची आदि की मनुहार की, केसर, चंदन, गुलाब के छांटणे देकर श्रीफल से सत्कृत किया गया था। भाट, भोजक, चारण
आदि याचकजनों को भी जिमाया तथा दीनहीन व्यक्तियों को प्रचुर दान दिया। राणादे ने लक्ष्मी को कार्यों में धूम व्यय करके तीनों पक्ष उज्ज्वल किये ।
सुठुवि मग्गिज्जंतो, कत्य वि केलीइ नत्थि जह सारो।
इंदिअविसएसु तहा, नथि सुहं सुठु वि गविट्ठ। खूब खोजने के बाद भी केले के वृक्ष में कोई उपयोगी वस्तु दिखाई नहीं देती, ठीक उसी प्रकार इन्द्रियों के विषयों में भी किसी प्रकार का सुख देखने में नहीं आता।
जह कच्छुल्लो कच्छु, कंडयमाणो दुहं मुणई सुक्खं ।
मोहाउरा मणुस्सा, तह कामदुहं सुहं विति ॥ खुजली का मरीज़ जब खुजलाता है, तब वह दुःख में भी सुख का अनुभव करता हैं, ठीक उसी प्रकार मोहातुर मनुष्य कामजनित दुःख को सुख मानता है।
जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य।
अहो दुक्खो है संसारो, जत्थ कोसन्ति जंतवो ॥ जन्म दुःख है, धड़दण दुःख है; रोग दुःख है और मृत्यु दुःख है । अहो, संसार ही दुःखमय है । इसमें प्राणी को दुःख प्राप्त होता रहता है।
DEા શ્રી આર્ય કયાણાગૌતમ સ્મૃતિગ્રંથ
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