SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 929
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [२]RITAIAILAIMILITARIAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAIm manAALAAAAAAAAAAAALI हो जाते थे। जो कोई भी बालक को देखता उसका मुफाया हुअा चेहरा भी दो क्षणों के लिये खिल उठता। यह इस बालक का अनोखा आकर्षण था। पारिवारिक सुख सुविधा में बालक का शारीरिक विकास होने लगा। जब बालक पांच वर्षका हा तो बाल अठखेलियों में अत्यन्त ही व्यस्त रहने लगा। बचपन में सहनशीलता, मधुरता, धैर्यता, गम्भीरता, इनके शान्त स्वभाव के अंग बने हुये थे। एकदिन वह अपनी माताश्री नामिलदे के साथ जैन उपाश्रय में प्राचार्य धर्ममूर्तिसूरिजी के दर्शनार्थ गया। जहां वह अत्यन्त ही शान्त एवं गम्भीर होकर पूज्य आचार्यश्रीजी के वेष एवं उनकी मुखाकृति को निहारने लगा। बालक कोडनकुमार अपनी मांकी उंगली को छोड़ता हा प्राचार्यश्री के निकट पहुंच गया और बिना किसी हिचक के प्राचार्यश्रीजी की गोदमें जा बैठा। बालक के इस व्यवहार को देखकर उपस्थित अनेकों श्रावक एवं श्राविकाएं अवश्यही नाराज हए लेकिन प्राचार्यश्रीजी ने बडेही लाड प्यारसे बालक के इस स्वभाव को सहन किया। इसी बीच बालक कोडनकुमार प्राचार्यश्रीजी के हाथ से महपत्ति को लेकर बार-बार अपने मुख की अोर करने लगा। जिसे देखकर सभी आश्चर्यचकित हो गये। आचार्यश्री धर्ममूर्तिसरिजी ने बालक के उज्जवल भविष्य को देखते हुए उनकी माता से संघ सेवा करने के लिये बालक की मांग की। माता-पिता के एकमात्र पुत्र होने एवं पिता के परदेश यात्रा के कारण मां ने बालक को देने की अनच्छिा व्यक्त की। चार वर्ष पश्चात् जब प्राचार्य धर्ममूर्तिसूरिजी पुनः लोलाडा गांव में पधारे, उस समय नव वर्षीय बालक कोडनकुमार ने स्वेच्छा से दीक्षित होने की इच्छा व्यक्त की। मां-बाप ने भी स्वेच्छा से बालक को जैन साधुत्व स्वीकार करने की अनुमति दे दी। वि. सं. १६४२ वैशाख सुदी तृतीया को कोडनकुमार ने धवल्लकपूर में दीक्षा ग्रहण की। विराट समारोह का आयोजन नागड गोत्रीय माणिक सेठ ने बड़े ही धूमधाम से किया। कोडनकुसार नव वर्ष की अवस्था में जैन साधु बन गये और इनका नाम 'शुभसागर' रखा गया। बालक कोडनकुमार अब पंच महाव्रतधारी जैन साधु बन गये । जैन साधु श्री शुभसागर को दो वर्ष के पश्चात् भारतविख्यात जैन तीर्थ पालीताणा की पवित्र धरती पर वि. सं. १६४४ माह सुदी पंचमी को बड़ी दीक्षा दी गई और आपका नाम मुनि कल्याणसागर रखा गया । शुभ लक्षणों वाले शुभसागर मुनि जनजन का कल्याण करने वाले मुनि कल्याणसागरजी महाराज साहब के नाम से सर्व विख्यात होने लगे। प्राचार्य धर्म मूर्तिसरिजी महाराज साहब के प्राज्ञापालक मुनि कल्याण सागरजी को वि. सं. १६४९ वैशाख सुदी तृतीया को अहमदाबाद में भव्य समारोह के बीच प्राचार्य पद की पदवी प्रदान की गई । अब मुनि कल्याणसागरजी महाराज का नामकरण आचार्य कल्याणसागरसूरीश्वरजी गखा गया। ज्ञानपुज, धर्मप्रचारक, विद्वान् , त्यागी एवं तपस्वी, चमत्कारी प्राचार्य कल्याणसागर सूरीश्वरजी महाराज के प्रोजस्वी चरित्र, संघ सेवा एवं एकता की अद्भुत शक्ति को देखकर आचार्य धर्ममूर्तिसूरि अत्यन्त ही प्रभावित हुए और इन्हें अलग से विहार कर जन-मानस को धर्म मार्ग बताने का आदेश दिया। आपने अपनी अमृतवाणी. सदुपदेशों, दैवी चमत्कारों से पथ भूलों को सच्चा मार्ग बताया जिसके प्रभाव से चतुर्विधि संघ प्रापसे अत्यन्त ही प्रभावित हुआ और आपको वि. सं. १६७२ में राजस्थान की ऐतिहासिक एवं प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण उदयपुर नगरी में युगप्रधान की उपाधि देकर अलंकृत किया। (ક) થી શ્રી આર્ય ક યાણ ગૉuસ્મૃતિગ્રંથો Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012034
Book TitleArya Kalyan Gautam Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalaprabhsagar
PublisherKalyansagarsuri Granth Prakashan Kendra
Publication Year
Total Pages1160
LanguageHindi, Sanskrit, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy