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प्राचार्य जिनविजयजी
अंकबाजु साधुजीवनमां रात्रिने दीवा सामे वंचाय नहि अने बीजी वांचवानी प्रबल वृत्ति के लखवानी तीब्र प्रेरणा रोकी शकाय पण नहि । समय निरर्थक जवानु दुःख अवधारामां। प्रां वधां कारणोथी तेमने प्रेकबार बीजलीनी बेटरी मेलववानु मन थयु । आजथी लगभग ३७ वर्ष पहेलां ज्यारे हूं तेअोना परिचयमां पहले पहेलो प्राव्यो त्यारे तेमणे मने बेटरी लेता अववानु कह्य । हं बैटरी अमदाबाद थी पाटण लई गयो, अने अने प्रकाशे तेमणे तहन खानगीमां कोई साधु के गृहस्थ न जाणे तेवी रीते लखवा अने वांचवा मांड्यु। जो हं न भूलतो होऊ तो तिकलमंजरीना कर्ता धनपाल विशे अंमणे जे लेख लखेलो छ ते अज बॅटरीनी मददथी । ते सिवाय बीजु पण तेमणे तेनी मददथी घणु वाच्युअने लख्यु, परन्तु दुर्दैव बेंटरी बगड़ी अने विध्न पाव्यु । पाखो दिवस सतत वांच्या-विचार्या पछी पण तेमनेराते वांचवानी भूख रहती। ते उपरान्त अभ्यासनां आधुनिक घणां साधनो मेलववानी वृत्ति पण उत्कट थती हती। छापां, मासिको अने विजु नवीन साहित्य में वधु तेमनी नजर बहार भाग्येज रहे । तेस्रो अन्य जैन साधुअोनी पेठे कोई पंडित पासे भरणता पण मणवानो पाराम अने अत लगभग साथेज थतो। संस्कृत साहित्य होय के प्राकृत ग्रे वधु प्रेमणे मुख्यपणे स्वाश्रित बाचन अने स्वाश्रित अभ्यासथी ज जाण्युछे । जेनी दृष्टि तीक्ष्ण होय अने प्रतिभा जागरुक होय श्रे गमे तेवां पण साधनोनो सरस उपयोग करी ले छ । अन्याये तेरो भावनगर, लीमडी, पाटण आदि जे जे जैन स्थलोमां गया अने रह्या त्यांथी तेमणे अभ्यासनी खोराक खूब मेलवी लीधो । परन्तु जूनी शोध खोलोनो अंगे ज्यारे ते प्रो आधुनिक विद्वानोंनां लखाणो वाँचता त्यारे वली तेमनी जिज्ञासा भभूकी ऊठती अने जैन साधुजीवननु-रूढ़िबंधन खटकतु । तेरो घणीबार मने पत्रमा लखता के तमे भाग्यशाली छो । तमारी पासे रेलवेनी लब्धि छ, गमे त्यां जई शको छो अने गमे ते रोते अभ्यास करी शकोछो । अलखाण शोखीन मनोवृत्तिन नहि पण अभ्यास परायण जीवनन प्रतिविम्ब छे, अम मने तो ते बखते ज लागेलू परण प्राजे असौने प्रत्यक्ष छ । पाटणना लगभग बधा मंडारो, जूनां कलामय मंदिरों, अने बीजी जैन संस्कृतिनी अनेक प्राचीन वस्तुप्रोना अवलोकने अमनी जन्मसिद्ध गवेषणावृत्तिने उत्तेजी अने ऊंडो अभ्यास करवा तेमज लखवा प्रेर्या । महेसारणा अने पाटण पछी त्रीजूचोमासु में बडोदराम तेमनी साथे गाले लु । हु जोतो के सेंट्रल लायब्ररीनां पुस्तकोनां पुस्तको अने जैन भंडारनी पोथीप्रोनी पोथीयो उपाश्रयमां तेमनी पासे खडकायेली रहेती। अने जो कोई जाते जइने न बोलावे तो तेश्रो मकानमा छे के नहि तेनी खबर मात्र लेखणना अवाजथी ज पड़ती। सद्गत चिमनलाल में अमना जेवा ज विद्याव्यसनी अने शोधक हता। चिमनलाल अंग्रजीना विद्वान अटले तेमनो मार्ग वधारे खुल्यो। श्री जिनविजयजी अंग्रेजी न जाणे अटले ते अंबाबतमां पराधीन छतां जिज्ञासा माणस ने सूवा दई शकती नथी । तेथी धीरे धीरे तेत्रो अंग्रेजी तरफ ढल्या । दरम्यान पोताना विषयनु अंग्रेजी भाषामां के जर्मन भाषामा पुस्तक लखायु होय तो तेने मेलवी गमे ते रीते तेनो अनुवाद करावी मतलब समजी तेनो उपयोग करता, पण पा रीते अंक अभ्यासनिष्ठ माणस लांबा बखत सुधी संतुष्ट रही शके नहिं । हुं जारछु त्यां सुधीमां कृपारसकोश, विज्ञप्ति त्रिवेणी, शत्रुजय तीर्थोद्धार प्रबंध वगेरे पुस्तको लखवानो पायो बडोदरामां ज नंखायो। अने तेमनी साहित्य विषयक आकर्षक कारकिर्दी त्यांथी शुरू थई । जेम जेम वाचन वध्यु अने लखवानी वृत्ति तीव्र बनी तेम तेम वधारे ऊरणप भासती गई अने जैन साधुजीवननां बंधनो तेमने सालवा लाग्यो । कालक्रमे मुबई पहोंच्या । अनेक जैन साधु साथे हता । मूबईमां समशील विविध विद्वानोना परिचये अने त्यांना स्वतन्त्र वातावरणे तेमनी अभ्यास वृत्तिने अनेक मुखे उद्दीप्त करी। अं अमनो मंथनकाल हतो। हुं वालकेश्वरमां तेोने प्रेकवार मल्यो त्यारे जोयु के ते सतत वांचवा-विचारवामां मग्न छतां ऊडा असंतोषमा गरक हता। थोड़ा मास पछी तेमनी वृत्ति
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