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सत्यव्रत 'तृषित'
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त्वं चेच्चम्पककोरके न कुरुषे प्रमाणमेतावता का हानिर्नहि तस्य कृत्यमपि रे किञ्चित्पुनीयते । तेनैवास्य तु वैभवं मधुप हे यद भूषयन्ति स्फुट
केलीमन्दिर देहलीपरिसरे कर्णेषु वामभ्र वः ।। कवि वीरेश्वर द्रविडनरेश मौद्गल्य हरि का पुत्र था।११ उसका समय अज्ञात है। वीरेश्वर का शतक काव्यमाला ५ में प्रकाशित हो चुका है।
(२७) रामशतक रामायणीय इतिवृत्त पर आधारित प्राचीनतम परिज्ञात प्रबन्धात्मक शतक है। मयूर ने जिस स्रग्धरात्मक शतक-परम्परा का प्रारम्भ किया था, रामशतक में उसका सफल निर्वाह हमा है। इसके सौ छन्दों में भगवान राम की अभिराम स्तुति है। १०१ वां पद्य भी हैं, पर वह स्रोत का भाग नहीं । इस उपजाति में कवि सोमेश्वर ने आत्मपरिचय दिया है
विश्वम्भरामण्डलमण्डनस्य श्रीराम भद्रस्य यशः प्रशस्तिम् । चकार सोमेश्वरदेवनामा यामार्धनिष्पन्नमहाप्रबन्धः ।।
रामशतक में रामजन्म से लेकर अयोध्या-पागमन तथा राज्याभिषेक तक की समूची कथा संक्षेपतः निबद्ध है । स्तुति रामकथा के अनुसार आगे बढ़ती है। स्रग्धरा जैसे दीर्घ तथा जटिल छन्द का प्रयोग होने पर भी रामशतक की कविता माधुर्य तथा प्रसाद से सम्पन्न है । स्तोत्र-सुलभ सहृदयता तथा भक्ति-विह्वलता से रामशतक आद्योपान्त अोतप्रोत है। कवि सूर्यशतक आदि शतश्लोकी स्तोत्रों से प्रभावित अवश्य है, किन्तु उसकी कविता दुरूहता तथा कृत्रिमता से सर्वथा मुक्त है । रामशतक सोमेश्वर की नाट्यकृति 'उल्लासराघव' के परिशिष्ट रूप में, गायकवाड़ प्रोरियेण्टल सीरीज, बड़ौदा से प्रकाशित हुआ है। सोमेश्वर गुजरात के शासक वस्तुपाल (तेरहवीं शताब्दी) का आश्रित कवि था।
(२८) रोमावलीशतक लक्ष्मण भट्ट के पुत्र कवि रामचन्द्र की रचना है। रामचन्द्र ने १५२४ ई० में रसिक रञ्जन नामक एक अन्य काव्य का निर्माण अयोध्या में किया था। इस पर उन्होंने शृङ्गार तथा वैराग्य परक एक टीका भी लिखी थी। १२
(२६) प्रार्याशतक को, इसके सम्पादक श्री एन० ए० गोरे ने शैवदर्शन के प्रकाण्ड प्राचार्य अप्पयदीक्षित (१५५८-१६३० ई० अथवा १५२०-१५६२ ई.) की रचना माना है, यद्यपि उनकी उपलब्ध ग्रन्थ सूची में इसका उल्लेख नहीं है । शतक की सो पार्याओं में प्रार्यापति भगवान् शङ्कर की कमनीय स्तुति की गयी है। इसीलिये इसका नाम आर्याशतक रखा गया है। काध्य का प्रारंभ भगवद् वन्दना से होता है
दयया यदीयया वाङ् नवरसरुचिरा सुधाधिकोदेति । शरणागत चिन्तितदं तं शिवचिन्तामरिंग वन्दे ।।
११. योऽभूद्राविडचक्रवतिमुकुटालंकारभूतस्य रे
मौद्गल्यस्य हरेः सुतः क्षितितले वीरेश्वरः सत्कविः ।।१०५।। १२. शब्दकल्पद्र म, चतुर्थ भाग, पृष्ठ १५२.
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