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डॉ. प्रभाकर शास्त्री
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वर्ते संप्रति सन्निधौ तव जवा देताजयश्रीरिव श्रीमानेधिसमेधिताखिलबालो 'काले' ति सा तं जगौ।" पीयूषायितमेत देव वचने तस्या निपीयोत्थितं प्रोत्थाय प्रणनाम वरिणत गुण विश्वाम्बिकायां बुधैः ।। श्रीमत्या चरणाम्बुजद्वयमिदं भाग्यं ममाहो महन् मन्दस्येति विभावयन् दृढमति श्रीसोढदेवात्मजः ।।६६३॥"
"प्रीतास्मि त्वयि निर्भयेन मनसा दुहृबलें भीषणं पाथोधि तरसा विलोलितवति श्रीकोलविष्णाविव ।। क्षात्रविक्षतविग्रहे प्यजहति त्रेयं स्वधर्म परं रक्तस्राव सुतोबितस्वकगुरगा शण्वेहि कोदन्तकम् ॥६६६॥"
उसी समय भगवाउ नारद दिखाई दिये । राजा ने उन्हें देखकर प्रणाम किया। श्रीनारद मुनि ने भी भगवती के अर्चना के लिए ही उपदेश दिया
"दैवादेवतदेवदेवपथगो दृग्गोचरो नारदो वीणापाणिरुदाननीकृतमृगो वेगोन्वममहीप्तिगः । दृष्टो हृष्टतनूरूहेण सहसा बेधो भुवाभ्यथितो लब्धार्थी कृतजात दर्शन जनो नत्वा मिनिन्ये भुवम् ॥६७०॥
मूनि नारद ने उपदेश दिया
"शक्ति सर्वविधायिनी भजविभो! भक्तप्रियां शक्तये भातमतिरमातुरतिशमिनीं विभाजिनीं जत्मिनाम् । सा शीघ्र'मनसा धृतांघ्रिकमला विध्यच्युतेशार्चिता चिन्ता सन्ततिमोचिनी भगवती कर्त्त हतेमोक्षितम् ।।७२।।"
राजा दूलहराय ने पुनः भगवती की आराधना प्रारम्भ की। सन्तुष्ट होकर भगवती ने उसे दर्शन ही नहीं दिये, अनेक वरदान भी दिये । राजा ने उसका मन्दिर बनवाकर वहाँ स्थापित कर दिया। यह मन्दिर "जमुवायमाता" के नाम से प्रसिद्ध है, जो माची से ३ कोस दूर है। रामगढ़ के बन्ध से कुछ दूर, अनुमानत २ मील नीचे 'जमुवा रामगढ़' नामक ग्राम है, वहीं देवी का प्राचीन मन्दिर है।
"श्रीभिमिश्रित मेनमात्र तवचा माता कृतानुग्रहा गुह्यानुग्रहणोचितां धियमथ प्रागल्भ्य गर्भा' मुदा । दिव्यां च प्रतिभां दधानमधिकां विक्रांततां कुर्वती भूयोवाचमिमामुवाच रूचिरां तं सर्व लोकेश्वरी ॥६७६॥"
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