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भारतीय संगीतशास्त्र में मार्ग और देशी का विभाजन अपरान्तिकादयो भरतशास्त्रोक्तगीत प्रकार विशेषाः ब्रह्मज्ञानाभ्यासहेतोर्ज्ञेयाः । एतेषु गीयमानेषु नावस्य यत उदयो यत्र च लयस्तदवगन्तव्यम् । तदेव ब्रह्म, ततश्व तज्ज्ञा नाभ्यासाय ते गेया इति युज्यते वक्तुम् । अपि च,
वीणावादनतस्वज्ञः
श्रुतिजातिविशारदः । तालज्ञश्चप्रयासेन मोक्षमार्ग निगच्छति ॥
तत्त्वतो यो वेति सोऽनायासेन मोक्षमार्ग मोक्षोपायभूतंमनस ऐकांय ब्रह्माज्ञाहेतु' निगच्छति । यस्तु वीणादिनादानां यत उदयो यत्र च लयस्तत्रान्तरेभ्यो विविक्ततया न सम्यग्वेत्ति तं प्रत्याह
गीतजी यदि योगेन नाप्नोति परमं पदम् । रुद्रस्वानुचरो भूत्वा तेनैव सह मोदते ॥
( याज्ञवल्क्यस्मृति, अध्याय ३ प्रकरण ४, श्लो. ११०-१५ एवं अपरादित्य विरचिता परार्कापरा टीका )
ऊपर उद्धृत वचनों का सारांश इस प्रकार है :- - (१) जो व्यक्ति वाह्य प्रालम्बन के प्रभाव में चित्त को समाधि में स्थिर नहीं कर पाते, उनके लिए सामगान का विधान है, क्योंकि उसमें परम प्रवधानयुक्त गायन से परब्रह्म की प्राप्ति हो सकती है । (२) सामगान के ही समकक्ष एक अन्य अभ्यास है और वह है अपरान्तक, उल्लोध्यक यादि गीतों का गायन स्मरणीय है कि यही भरतोक्त शुद्ध गीतक है। (३) साम अथवा गीतकों के गायन में अन्वेषरण का विषय यही है कि नाद का उदय कहां से होता है और लय कहाँ
होता है यह उल्लेख बहुत महत्वपूर्ण है । नाद का उदय और लय दोनों ही का आधार ब्रह्म है, इसलिये वही मार्ग के अन्वेषण का विषय है। इस पर विशेष विचार अपेक्षित हैं। (४) यदि नाद के उदय और लय के आधार को तत्त्वतः जाने बिना साम अथवा ( देवस्तुतिपरक ) गीतक का गान किया जाता है तो प्रयोक्ता परम पद को प्राप्त नहीं होता, अपितु रुद्र का धनुचर बन कर उसी के साथ हर्ष को प्राप्त होता है। याज्ञवल्क्य की इसी उक्ति को प्रभिनवगुप्त ने नाट्य शास्त्र २६।११ की टीका में यह कह कर उद्धृत किया है कि योग रूप अवधान गीतक के गायन में आवश्यक अथवा उपयोगी नहीं होता । X याज्ञवल्क्य और अभिनवगुप्त का ऐसा अभिप्राय जान पड़ता है कि परमपद प्राप्ति के लिये गायन के साथ योग-रूप अवधान अनिवार्य है, किन्तु देवतापरितोष उसके बिना भी हो सकता है। देवतापरितोष से यहां संभवतः साम अथवा गीतक के गायन के वस्तुगत धर्म के अनुसार होने वाला श्रदृष्ट फल हो अभिप्रेत है । कहना न होगा कि इस अदृष्ट फल की सिद्धि के लिये भी प्रयोक्ता में तदनुकूल वासना रहना अनिवार्य है।
नाद का उदय और लय कहां है इस सम्बन्ध में आधुनिक न्यूनतायें दिखाई देती हैं । १-ध्वनि के ग्राहक के विषय में ।
ध्वनिविज्ञान की जो स्थापनायें हैं उनमें तीन यह माना जाता है कि मनुष्य के कान की बाद में चल कर साम आदि में निरूपित १४
भी गीतकों का ही गीतक भेद । )
+ यहाँ साम से गीतकों को पृथक् कहा गया है, किन्तु एक भेदमात्र रह गया । ( दृष्टव्य संगीतरत्नाकर, संगीतराज X अवधानं योंगरूपं तच्चात्र नोपयोगि परिवर्तकेव्वनद्धं – पूर्वरङ्ग तत्र हि देवतापरितोषादेव । सिद्धिः । तदेतदुक्तम् - "गीत ज्ञो यदि......." इत्यादि ।
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