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भारतीय संस्कृति में व्रजकला
और
उसके ऐतिहासिक तिथिक्रम का विचार
भारत की सप्त महापुरियों में मथुरा नगरी अपना महत्व तथा अपना स्थान एक विशेष रूप से रखती है । यह तीर्थ स्थान तो है ही साथ ही साथ ऐतिहासिक विभूतियों से भी ओतप्रोत है, और है उत्तरी भारत में गंगा यमुना की अन्तर्वदी सच्ची रंगभूमि । यह वह स्थान है जहां अनेक साम्राज्यों का उत्थान और पतन हुआ है ।
जिन जातियों ने भारत पर चढ़ाई की मथुरा उनके मार्ग में अवश्य आया, जिसका फल यह हुआ कि मथुरा की सांस्कृत-नद में अन्य जातियों के धार्मिक विचार के पुट लगते रहे जिनकी छाप मथुरा कला पर भी विशेष रूप से पड़ी ।
मथुरा कला के साथ अन्य कलाओं का प्रशंसनीय प्रदर्शन हमको स्टेट म्यूजियम ( विचित्रालय ) भरतपुर में तथा पुरातत्व संग्रहालय मथुरा में देखने को मिलता है । उनके देखने से यह पता चलता है कि मथुरा कला में यूनानी भावों को भी दर्शाने वाली मूर्तियां मौजूद हैं और इनके अतिरिक्त बौद्ध तथा जैन धर्म सम्बन्धी भी अनेक मूर्तियां हैं ।
मथुरा में ब्राह्मण धर्म का बहुतायत से प्रचार था और इस धर्म के देवी देवताओं की मूर्तियों की एक प्रकार से पूरी भरमार सी रही है । अपने २ धर्म का प्रचार करने के लिये बौद्ध भिक्षुत्रों और जैन मुनियों ने इस स्थान को अपनाकर अपने २ धर्मों का कला द्वारा प्रदर्शन करके कला का प्रसार किया | प्रसंगवश यहां पर प्रथम मथुरा कला का तिथिक्रम उपस्थित करना परम आवश्यक है जो इस प्रकार से है :
मौर्यकाल ३२५ ई० पूर्व से शुङ्गकाल १८४ ई० पूर्व से
भगवान बुद्ध और महावीर जी ई० पूर्व ६ठी शताब्दी १८५ ई० पूर्व तक ε२ ई० पूर्व तक
क्षतरातवंश के महाक्षत्रप राजुल और सुदास १०० ई० पूर्व से ५६ ई० पूर्व तक, शक कुषाण वंश ई० प्रारम्भ से तीसरी शताब्दी तक, कुजुला कैड पाइसिस औौर वेम कैडफाइसिस ८ ई तक
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कनिष्क ६५ ई० से वासिष्क १०२ ई० से
१०२ ई० तक १०६ ई० तक
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