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प्राचार्य श्री जिनविजयमुनि
बजाज तथा श्री मुशी ने उन्हें पुनः साहित्य-सेवा की प्रेरणा दी और कलकत्त से श्री बहादुर सिंह सिंघी का भी बराबर आग्रह बना रहा । परिणामस्वरूप १६३० के दिसम्बर मास में वे अपने कुछ सहकारियों और विद्यार्थियों के साथ शांति निकेतन चले गये और वहाँ सिंघी जैन ज्ञान पीठ तथा सिंघी जैन ग्रन्थ माला का प्रारम्भ हो गया। ग्रन्थमाला का पहला ग्रन्थ प्रबन्ध चितामरिण उसी समय प्रकाशित हुप्रा । शांति निकेतन में एक जैन छात्रावास भी मुनिजी ने प्रारंभ कर दिया। इन सब का व्ययभार श्री बहादुर सिंह सिंघी ही उठाते थे। मुनिजी शांति निकेतन में लगभग तीन वर्ष रहे । बंगाल का जलवायु उनके अनुकुल नहीं रहा और वे अस्वस्थ रहने लगे, इस लिए उनका विचार अपना कार्य केन्द्र शांति निकेतन के बजाय अहमदाबाद या बम्बई में रखने का बनने लगा।
उन्हीं दिनों उदयपुर में श्री केसरियाजी तीर्थ के संबंध में जैनों के श्वेताम्बर तथा दिगम्बर संप्रदायों में विवाद, चर्चा और मुकद्दमें बाजी हुई । इस सिलसिले में पुराने शिलालेखों, ग्रन्थों आदि को पढ़कर प्रमाण तैयार करने की जिम्मेदारी मुनिजी पर पाई। इसी दौरान श्री मोतीलाल सीतलवाड और श्री कन्हैया लाल मुशी जैसे धुरंधर वकील उदयपुर आये । श्री मुंशी ने भारतीय विद्या भवन की स्थापना की बात मुनिजी के सामने रखी और सहयोग देने को कहा।
उदयपुर से लौटते समय मुनिजी तथा श्री बहादुर सिंह सिंघी दोनों चित्तौड़गढ़ गये । वहां से अजमेर की अोर पाते समय सूर्योदय के लगभग रूपाहेली स्टेशन के पास से गुजरे तो मुनिजी अपनी जन्मभूमि को देखकर बड़े विह्वल हो गये । मालूम नहीं चित्तौड़गढ़ और रूपाहेली के संबंध में क्या भावना उठी जो बाद में पल्लवित हुई । वामन वाड़ में वे मुनि शांति विजय जी से मिले और वहाँ से अहमदाबाद चले गये ।
श्री मुशी का अनुरोध तीव्रतर होता गया और मुनिजी को अपने परम मित्र पं० सुखलाल के अपैन्डीसाइटिस के आपरेशन के सिलसिले में बम्बई रहना पड़ा। फलतः उन्होंने भारतीय विद्या भवन के कार्य में सहयोग देना तय किया । सिंघी जैन ग्रन्थ माला के कार्य को भी भवन के कार्य के साथ मिला दिया और दोनों काम साथ चलने लगे।
इसी बीच १९४२ का 'भारत छोड़ो आंदोलन' प्रारंभ हुआ और भवन के बहुत से विद्यार्थी इस अांदोलन में शरीक होने चले गये। मुनिजी का मन भी बहुत उत्तेजित और व्याकुल होने लगा। वे स्थानपरिवर्तन करके अहमदाबाद आ गये, पर यहाँ तो आंदोलन और भी तीव्र था। मुनिजी इसी अन्तर्द्वन्द्व में फंसे थे कि उन्हें जैसलमेर से प्राचार्य श्री जिनहरि सागर का निमंत्रण वहां के ज्ञान भण्डारों को देखने और उन्हें व्यवस्थित करने का निमंत्रण मिला। मुनिजी ने जैसलमेर जाने की तैयारी की और ३० नवम्बर १९४२ को वे अहमदाबाद से जैसलमेर को रवाना हो गये । जैसलमेर में वे लगभग ५ महीने ठहरे । वहाँ उन्होंने लगभग २०० ग्रन्थों की प्रतिलिपियां करवाई और १ मई १९४३ को वे वापिस अहमदाबाद चले गये और वहाँ से बम्बई जाकर अपने काम में लग गये ।
१९४७ में मुनिजी श्री मुशी के साथ उदयपुर के महाराणा की इच्छानुसार प्रताप विश्वविद्यालय की योजना बनाने और उसे कार्य रूप में परिणत करने के प्रयास में संलग्न हुये पर वह योजना देश की स्वतंत्रता की घोषणा और देशी राज्यों के विलीनीकरण के साथ ही भविष्य के गर्भ में विलीन हो गई।
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