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श्री उदयसिंह भटनागर
प्रारम्भ हो गये होंगे, जब अपभ्रंश के क्षेत्र में प्रान्तीय विशेषताए' अकुरित होने लगी थीं। इसका प्रमाण वि० सं० ८३५ में उद्योतनसूरि द्वारा रचित 'कुवलयमाला' कथा में संग्रहित प्रान्तीय रूपों से मिलता है ।५४ परन्तु राजस्थानी का अधिक स्पष्ट रूप जिनदत्तसूरि कृत 'उपदेस रसायनसार' में मिलता है।५५
अपभ्रंश से राजस्थानी के स्वरूप विकास की प्रधान प्रवृत्ति है। अपभ्रश के द्वित्वर्णवाले शब्दों की अस्वीकृति और उनके स्थान पर नव विकसित रूपों की स्थापना। यह प्रवृत्ति निम्नलिखित रूपों में पायो जाती है :
५४.---शौरसेन अपभ्रश से प्रभावित क्षेत्र में विकसित इन रूपों का उल्लेख यहाँ किया जाता है-- १. मध्यदेश--णय-नीति-सन्धि-विग्गह-पडुए बहु जंपि रे य पयतीए ।
'तेरे मेरे आउ' त्ति जंपि रे मझ देसे य ।। २. अन्तर्वेद--कवि रे पिंगल नयणे मोजणकहमे तद् विणवा वारे ।
'कित्तो किम्मो जिन' जंपि रे य प्रतवेते य ॥ ३. टक्क---दक्षिण दाण पोरुषा विण्णाण दया विवज्जिय सरीरे ।
'एहं तेहं' चवंते टक्के उण पेच्छय कुमारो । ४. सिन्धु-सललितमिदु--मंदपए गंधव पिए सदेस गय चित्ते ।
'च्चउडय मे' भणि रे सुहए अह सेन्धवे दिठे ॥ ५. मरुदेस-बंके जडे य जड्ड बहु मोई कठिण-पीण-थूणंगे ।
"अप्पा तुप्पा' भणि रे अह पेच्छइ मरुए तत्तो । ६. गुर्जर--घय लोलित पुढेंगे धम्मपरे सन्धि-विग्गह णिउणे ।
'गउरे भल्लउ' भणि रे अह पेच्छइ गुज्जरे प्रवरे ।। ७. लाट-हाउलित्त-विलित्ते कय सीमंते सुसोहिव सुगत्ते ।
'प्राहम्ह काइ तुम्ह मित्तु' भरिण रे अह पेच्छइ लाडे ।। ८. मालव-तणु-साम-मडह देहे कोवणए मारण-जी विरणो रोद्दे ।
'भाउअ भइणी तुम्हे' भणि रे अह मालवे दिढें ।। विशेष के लिये देखो-'अपभ्रंश काव्यत्रयी, भूमिका पृ० ६१-६४ । ५५--निम्नलिखित उदाहरण देखिये--
बेटटा बेट्टी परिणाविज्जहिं । तेवि समाण धम्म धरि विज्जहि ।। विसम धम्म-धरि जइ विवाहइ । हो सम्मुत्तु सु निच्छइ वाहइ ।। थोडइ धणि संसारइ कज्जइ । साइज्जइ सब्बइ सवज्जइ।। विहि धम्मत्थि अत्यु विविज्जइ । जेणु सु प्रप्पु निब्बुइ निज्जइ । 'उपदेसरसायनसार'-पृ० ६३-६४
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