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श्री उदयसिंह भटनागर
३. भाषा के अनेक भेद और उसमें राजस्थान की स्थिति :
महाभारत के पश्चात् सामाजिक व्यवस्था विशृखल हो गई थी। आर्य-अनार्य मिश्रण के कारण जातियाँ अपने कार्य और व्यवसाय के अनुसार महत्व प्राप्त करती जा रही थीं। विविध जातियाँ अपने अपने टोल में संगठित होकर अपनी अपनी बोलियों का प्रयोग करती थी। आभीरों के टोल तो महत्वपूर्ण हो ही गये थे परन्तु अभीरोक्ति ने भी आर्य भाषा प्राकृत के रूप को सर्वथा परिवर्तित कर दिया था, जो आगे चलकर अधिक महत्व प्राप्त कर लेने पर अपभ्रंश के नाम से प्रसिद्ध हुई और उसमें साहित्य रचना होने लगी।
प्राकृत का अन्दर का ढाँचा किसी सीमा तक सर्वदेशीय बना रहा था, पर विविध बोलियों की
प्रवृत्तियों के कारण छोटे मोटे जातिगत भेदों के साथ ही स्थानगत भेद हो गये थे। फिर भी इस ढांचे पर विकसित एक सामान्य भाषा अवश्य बनी रही। यही प्रान्तीय भेदों के साथ सर्वमान्य थी। देश भाषा' का यह एक रूप था। उसमें ये प्रान्तीय रूप जुड़े जा रहे थे। प्राकृत से भिन्न हो कर के रूप में प्रचलित हुई । ईस्वी सन् की प्रारम्भिक शताब्दी तक देशभाषा का यह रूप प्राकृत से पूर्णतः स्वतन्त्र हो चुका था। भरत ने अपने नाटय शास्त्र में (ई. दूसरी शताब्दी) विविध वर्गों के पात्रों द्वारा प्रयुक्त भाषाओं में संस्कृत और प्राकत से सर्वथा भिन्न एक 'देशभाषा का भी उल्लेख किया है
एवमेतत्त, विज्ञयं प्राकृत संस्कृतं तथा ।
अतः ऊर्ध्व प्रवक्ष्यानि देशभाषा प्रकल्पनम् ॥ यह देश के भिन्न भागों में प्रान्तीय विशेषताओं के साथ बोली जाती थी। भरत ने इसी देश भाषा के सात रूपों का प्रान्तीकरण किया है--
१. बाह लीका --पश्चिमी पंजाब और उत्तरी पंजाब की बोली २. शौरसेनी
--मध्य देश की बोली ३. श्रावन्ती
--मालव प्रदेश की बोली ४. अर्धमागधी --कोसल की बोली ५. मागधी
--मगध की बोली ६. प्राच्य
--मगध से आगे के पूर्वी देशों की बोली ७. दाक्षिणात्य --गुजरात तथा दक्षिण राजस्थान की बोली (४२)
ऊपर आर्य भाषा संस्कृत के उदीच्य मध्य देशीय और प्राच्य--इन तीन भेदों का उल्लेख किया गया है । इन्हीं के आधार पर प्राकृत के तीन भेदों का भी विकास हुआ, जिनमें अशोक की धर्म लिपियाँ उत्खनित हैं। इन्हीं तीन प्राकृतों से विकसित देश भाषा के प्रार्य प्रसार के साथ साथ-ये सात प्रान्तीय रूप हो गये। बाह लीका उत्तर-पश्चिमी सीमान्त प्रदेश, पश्चिमी पंजाब, काश्मीर ग्रादि देशों में बोली जाती थी, जिसका प्रभाव सिन्ध और कुछ कुछ उत्तर राजस्थान पर भी पड़ा था। इस भाषा का प्राधार उदीच्य ही
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४२--मागध्यवन्तिजा प्राच्याशूरसेन्यर्धमागधी ।
बह लीका दाक्षिणात्या च सप्तभाषा प्रकीत्तिता ।।
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