________________
आचार्य श्री जिनविजयमुनि ]
[ S
एवं मेरे अन्य विद्वान मित्र श्री इन्दुलाल याज्ञिनक, रामनारायण पाठक, रसिकलाल पारीख आदि से भी यथेष्ट विचार विनिमय और चर्चा-वार्ता हुई। परिणामस्वरूप गुजरात विद्यापीठ में अपनी सेवा समर्पित करने का मैंने निश्चय किया और फिर मैंने महात्माजी से अपनी बातें यथायोग्य निवेदन कीं । मैंने महात्माजी से निवेदन किया कि मुझे अपने जीवनक्रम में आपात परिवर्तन करना अपेक्षित है— मैं अपनी भावना के अनुकूल ही अपना वेष तथा जीवन व्यवहार रखना चाहता हूँ । वर्तमान में जो आचार-व्यवहार है वह मेरे मानसिक मंथन के अनुरूप तथा अनुकूल नहीं है इसलिए मैं अब इस वेष का भी त्याग करना चाहूँगा और अपने आहार-विहार आदि बातों में भी परिवर्तन करना होगा। मैं एक साधु रूप में अपने आपको प्रसिद्ध नहीं होने देना चाहता, परंतु मैं देश का एक सामान्य सेवक बनना चाहता हूँ और इसके लिए मुझे विद्यापीठ में संयुक्त होने के पहले एक जाहिर वक्तव्य द्वारा अपने मनोभाव स्पष्ट करने होंगे और यह सब मैं अब यहां से वापस पूना जाकर वहीं अपने स्थान में बैठकर तय करूंगा और फिर मैं विद्यापीठ की स्थापना के समय यहां उपस्थित होऊ रंगा - महात्माजी ने मेरे सब विचार बड़ी सहानुभूति के साथ सुने और कहा कि ऐसा करना तुम्हारे लिए उपयुक्त ही है ।
महात्माजी से विदा होकर मैं कठियावाड़ में बढवारण के पास एक छोटे से लीमली नामक गांव में गया वहां पर मेरे अनन्य सुहृद् एवं चिरसाथी पं० सुखलाल जी कुछ बीमारी के कारण टिके हुए थे उनकी तबीयत के समाचार पूछने तथा अहमदाबाद के राष्ट्रीय विद्यापीठ में संयुक्त होने तथा महात्माजी से हुए विचार विमर्श के बारे में सारी बातें करनी थी इसलिए मैं लींमली पहुँचा ।"
अहमदाबाद से चलकर मुनिजी काठियावाड़ में बढवारण के निकट लींमली नामक स्थान में गये जहां उनके अनन्य सुहृद तथा चिरसाथी प्रज्ञाचक्षु पं. सुखलाल बीमारी के कारण ठहरे हुए थे। वहां उन्होंने महात्मा गांधी के साथ हुई सारी बातचीत की चर्चा की और विचार-विमर्श करके अपना अगला कार्यक्रय निश्चित किया । तदनुसार जब गुजरात विद्यापीठ की स्थापना हुई, तब उसके अन्तर्गत प्राचीन साहित्य और इतिहास के अध्ययन एवं संशोधन के लिए गुजरात पुरातत्त्व मंदिर का भी निर्माण किया गया और मुनिजी राष्ट्र की सेवा के व्रती बने और मुनि-वेश तथा जीवन-चर्या में आवश्यक परिवर्तन करके उन्होंने राष्ट्र सेवक के रूप में उक्त मंदिर के नियामक का पद स्वीकार कर लिया। यहां भी मुनिजी ने पुरातत्व मंदिर ग्रन्थावली की स्थापना की जिसके अन्तर्गत अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन हुआ ।
लगभग ८ वर्ष तक मुनिजी विद्यापीठ में रहे । इस समय गुजरात विद्यापीठ की पुनर्रचना होने लगी और हरेक कार्यकर्त्ता के लिए एक प्रतिज्ञापत्र भरना लाजमी हुआ जिसमें एक मान्यता यह भी थी कि केवल हिंसा से ही भारत को स्वराज्य प्राप्त हो सकता है । मुनिजी तो प्रारंभ से ही बंधनों के प्रति विद्रोही रहे थे, अतः उन्होंने विद्यापीठ की सेवाओं से मुक्त होने का निश्चय किया । सुयोग यह भी बना कि कुछ ही समय पूर्व जर्मनी में भार ती विद्या के कुछ मान्य विद्वान, जिनमें हाइनरिख ल्यूडर्स, श्रोडरिंग ग्लेजनोंव आदि शामिल थे, भारत भ्रमण के -लिए श्राये थे और उन्हें कुछ महत्वपूर्ण प्राचीन ग्रन्थों पर विचार-विनिमय तथा संपादन की दृष्टि से जर्मनी आने का निमंत्रण दे गये थे । इसे स्वीकार कर मुनिजी गांधीजी की सम्मति से १६२८ में जर्मनी चले गये और वहां लगभग डेढ वर्ष रहे । जर्मनी में मुनिजी ने बोन, हाम्बर्ग, और लाइपित्सिंग विश्वविद्यालयों के प्राच्यविद्या के विद्वानों से गंभीर विचार-विमर्श किये और घनिष्ठ परिचय प्राप्त किया । बर्लिन में मुनिजी ने
1
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org