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राजस्थान भाषा पुरातत्व
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पुल्वन, पल्लवण, पल्डवण, पड़वण, पड़वा, पड़वह, पड़वो, पड़हो, बड़वह,
बड़वो, भड़वह, भड़वो; बड़, भड़, भट, प्राकृत- भट्ट >आधु० भाट । ये सब चारण-भाटों की राजकीय परम्परा के उद्घाटक शब्द हैं। तमिल-'कट्टलै- पझक्कम' मेवाड़ में प्रचलित 'झट्टक - पट्टक' ताजीम से सम्बन्धित है । इन शब्दों से सारी राजकीय संस्कृति के मूल आधार का चित्र प्रस्तुत हो जाता है।
अब हमें कोल आदि जातियों और भीलों के सम्बन्ध पर भी प्रकाश डालना है। भील-कोलों को निषाद वंशी कहकर दोनों में पैतृक सम्बन्ध स्थापित कर दिया गया है । भीलों के पश्चिम से आने की धारणा प्रमाणित हो जाने के पश्चात् इस सम्बन्ध पर भी विचार कर लेना आवश्यक है । निषाद को आग्नेय (Austric) मानकर उसका मूल स्थान हिन्द-चीन में माना जाता है । डा० ग्रियर्सन ने कौल-मुन्डा भाषाओं को आसाम की मोन-ख्मेर जाति की खसी भाषा, भारत-चीन के दक्षिण और दक्षिण-पूर्व के द्वीप समूहों की भाषाओं के साथ प्राग्नेय समूह (Austric group) में लिया है। इस ह में भीली को सम्मिलित नहीं किया गया है। हम ऊपर बतला चुके हैं कि भीलों की यद्यपि अपनी कोई मूल भाषा नहीं रही और आज ये आर्य भाषा-राजस्थानी ही बोलते हैं, पर इनकी इस भाषा में भी इनकी अपनी भाषा की कुछ मूल प्रवृत्तियाँ और तत्व वर्त्तमान हैं, जिनका प्रभाव राजस्थानी की आधार-रचना में दीख पड़ते हैं । ये प्रवृत्तियां और भाषा तत्व आग्नेय से सर्वथा भिन्न हैं। अत: भील को आग्नेय में सम्मिलित करना उचित नहीं है। ड [० सुनीति कुमार चाटा ने भीलों का जो आग्नेय कौल के साथ सम्बन्ध स्थापित किया है वह भी प्रमाणभूत नहीं है। आग्नेय चाहे दक्षिण चीन से पाया या उत्तरी हिन्द-चीन से अथवा भूमध्य सागर से, ३० भील उस समूह के भीतर नहीं रखा जा सकता । यह बात ठीक है कि किसी समय सारे उत्तरी भारत-पंजाब, राजस्थान तथा मध्यभारत और यहां तक कि दक्षिण में भी आग्नेय लोगों ने अपने घर बसाये और राज्य स्थापित किये और अपनी संस्कृति, सभ्यता, ज्ञान और कला से इस देश को प्रभावित किया । चन्द्रकलाओं पर आधारित तिथियों के अनुसार दिवस-गणना इन्हीं की देन मानी जाती है। इसी प्रकार बीस तक की संख्या को 'कौड़ी' में गिनना इनकी विशेषता का एक प्रमुख अवशेष है। इनकी भाषा के अवशेष आज भी खस, कोल, मुडा, संथाल, हो, भूमिज, कूकू, सबर, गदब आदि की बोलियों में मिलते हैं।
विशप काडवेल ने अपने द्रविड़ भाषाओं के तुलनात्मक व्याकरण में प्रादि द्रविड़ों के सामाजिक और सांस्कृतिक विकास की ओर संकेत करते हुए द्रविड़ भाषाओं के दो वर्ग कर दिये हैं-एक अपरिमार्जित (Uncultivated) और दसरा परिमाजित (Cultivated) | इनके आधार पर द्रविड़ भाषानों को इस प्रकार बांट दिया गया है।
अपरिमाजित
१. टोडा (Toda) २. कोटा (Kota)
परिमाजित १. तमिल (Tamil) २. मलयालम (Malyalam)
३०-Jean Przylusky तथा अन्य विद्वानों के मत, देखो सु० कु. चा० कृत 'भारत में आर्य और
अनार्य' पृ.६
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