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राजस्थान भाषा पुरातत्व
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थे तब उसके नाम का प्रादिम *लक या *लेक (*lak *lek) था। इसी से विकसित *लंग, *लेंग, *लिंग (*lang, *leng, *ling) रूप हुए। आगे चलकर यह लक्-लिंग, लकु-लिंग, लेक-लिंग रूपों में विकसित होकर लकुटीश, लकुलीश, एकलिंग आदि रूपों में मिल कर देवता के रूप में स्थापित हुआ १६ । लकुटीश या लकुलीश शिव रूप में स्थापित हया और मेवाड़ के राजवंश द्वारा उसकी पूजा होने लगी। यही लकुलीश नाम एकलिंग के रूप में इसी वंश द्वारा स्थापित होकर कुल देवता के रूप में प्रतिष्ठित हुआ ।२० एकलिंग की यह मूर्ति गोभिल्ल (गौ+भिल्ल) द्वारा पालित-पोषित गुहिल-बप्पा (गुहिल / गोहिल / गोहिल्ल ८. गोभिल्ल, Zगौ+ भिल्ल) के राज्य स्थापित करने के पूर्व जहाँ स्थित थी वहाँ पहले भीलों का ही राज्य था और उपयुक्त हल के रूप में प्रयुक्त आदिम 'लेग-लिंग' से 'लकूटीश' का सम्बन्ध था।२१
राजस्थान की भाषा में भीली तत्व के पश्चात् द्रविड़ तत्व मिलता है । द्रविड़ों का भूमध्य सागर के पूर्वी प्रान्तों से आगमन हुआ । यह धारणा अब अत्यधिक मान्य है । बलूचिस्तान की पाहूई भाषा में द्रविड़ वर्तमान है, जो किसी समय उनके वहाँ होने का प्रमाण है। द्रविड़ भीलों के पश्चात् और पार्यों के पूर्व भारत में आये और राजस्थान तथा पंजाब में फैले । इससे राजस्थान के भील पहाड़ों में दबते चले गये । फिर आर्य प्रसार के कारण द्रविड़ भी दक्षिण की ओर उतर कर फैल गये, जो अब तमिल मलयालम, कन्नड़, हगेड़, कोड़ग, तुल , तेलुगु, गोंड आदि द्रविड़ परिवार की भाषाओं का प्रदेश है। .
अब यह मत सर्वमान्य है कि द्रविड़ भी आर्यों के समान बाहर से आकर यहाँ बसे । ये लोग पार्यों से पहले ही पश्चिम से यहाँ पा चुके थे। वीलियम ऋक ने अपने ग्रन्थ 'कास्ट्स् एण्ड ट्राइब्ज में इस धारणा का प्रसार किया कि द्रविड़ लोग अफ्रिका महाद्वीप से भारत में प्राये। इस विषय पर थर्सटन ने 'कास्टस एण्ड ट्राइब्ज आफ साउथ इन्डिया' में तथा रिसले ने 'द पीपुल आफ इन्डिया' में विस्तृत व्याख्या करते हुए द्रविड़ और निग्रो-बन्टु परिवारों में समानता स्थापित की। ए० एच० कीने ने इस धारणा को स्वीकार किया । इधर टोपीनार्ड ने द्रविड़ों का सम्बन्ध जाटों से जोड़ने की धारणा प्रस्तुत की। परन्तु विशप काडवेल (ई. १८५६) तथा प्रो० टी० पी० श्रीनिवास पायंगर की शोधों ने और मोहनजोदड़ो की सभ्यता की खोद-शोध ने द्रविड़
डाला । इसके अनुसार द्रविड़ों का मूल स्थान भूमध्यसागर का पूर्वी प्रान्त निश्चित हो गया
१६-देखो-'लोकवार्ता', अप्रेल १९४६, वर्ष २, अंक २ पृ० ८६- 'कुछ जनपदीय शब्दों की पहचान' वासुदेव
शरण अग्रवाल । २०-विशेष के लिये देखो-प्रोझा कृत 'उदयपुर राज्य का इतिहास', भाग १, पृ० ३३ और १२५ । २१-ऐसे और भी अनेक शब्द हैं जो इस जाति से सम्बन्ध रखते हैं और जिनका प्रभाव राजस्थानी तथा
अन्य भाषामों में वर्तमान है; जैसे-कुछ शब्द-नारिकेल (नारेल), कदन, (केल). हरिद्रा (हलद्), वातिगण (वांगण), अलाबु (कोलो)-विशेष के लिये देखो:(1) Pre-Aryan and Pre-Pravidian in India ( Translated from French Airtele of
Sylarain Levi, Jean Przyluski and Jules Bloch) by Prabodh Chandra Bagchi. (2) ('The Study of New Indo- Aryan' Journal of the Department letters Calcutta
University 1937 P. 20.)
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