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________________ श्री अगरचन्द नाहटा इन देशों सम्बन्धी अन्य उल्लेखों के लिए देखें मेरा " जैन साहित्य का भौगोलिक महत्व" नामक लेख जो प्रेमी अभिनन्दन ग्रंथ में प्रकाशित है । १२६ बालकों के जन्म समय के संस्कार एवं उनकी शिक्षा दीक्षा का विवरण दृढ़ प्रतिज्ञ के जीवन प्रसंग में इस प्रकार दिया है । कल्पसूत्र तथा अन्य ग्रागमों में भी ऐसे ही वर्णन मिलते हैं जिससे तत्कालीन संस्कृति की जानकारी मिलती है "तए णं तस्स दारगस्स सम्मापियरो पढमे दिवसे ठियवडिय काहिति बिइय दिवसे चंद सूर दंसरियं काहिति छट्ठे दिवसे जागरियं काहिति एक्कारसमे दिवसे वीइक्कते णिवित्त सुइजायकम्मकरणे संपत्त े । बारसाहे दिवसे सम्मापियरो इयं एयारूवं गोरणं गुरणणिष्फण्णं णामधेज्जं काहिति -- "जम्हाणं अम्हं इमंसि दारगंसि गब्भत्यंसि चेव समारणंसि धम्मे दढपइण्णा तं होउरणं म्हं दारए दढपणे णामेणं" तएण तस्य दारगस्स सम्मापियरो गाम धेज्जं करेहिंति दढपइति । तं दढपइण्णं दारगं प्रम्मापियरो साइरेगठवास जायगं जाणित्ता सोभांसि तिहिकरण (दिवस) क्खत्त मुहुत्तंसि कलायरियस्स उवरोहिति । तए गं से कलारिए तं दढपइण्णं दारगं लेहाइयाम्रो गरिणयप्पहारणाओ सउणख्य पज्जवसाणाश्रो बावत रिकला सुत्तो य प्रत्थश्रो य करणो य सेहाविहिइ सिक्खा विहिप्ति (७२ कला नाम) तं जहा- लेहं गणियं रूवं णट्ट गीयं, वाइयं, सरगयं पुक्खरगयं समतालं जूयं जगवायं पासगं श्रठ्ठावयं पोरेकच्चं दगमट्टियं विहिं (पाणविहि वत्थविहिं विलेवणविहि ) सयणविहि प्रज्जं पहेलियं मागहियं गाहं गीइय सिलोयं हिरण्णजुति ( सुवणजुति गंधजुत्ति चुण्णजुति श्राभरण विहि तरुणीपड़िकम्मं इत्थिलक्खणं पुरिस लक्खणं हलक्खणं गयलक्खणं गोगलक्खणं कुक्कुडलक्खणं चक्कलक्वणं छत्तलक्खणं चम्मलक्खणं दडलक्खणं असिलक्खरणं मणिलक्खणं काकणिलक्खणं वत्युविज्जं खंधारमाणं नगरमाणं वत्थुनिवेसणं ( वूहं पडिवूहं चारं पडिवारं चक्कवूहं गरूलवूहं सगडवूहं जुद्धं निजुद्धं जुद्धाइजुद्धं मुट्ठिजुद्धं बाहुजु लयाजुद्धं इसत्थं छरूप्पवाहं धरणुध्वेयं हिरण्णपागं सुवणपागंड्ड ( ) वट्टखेड्ड सुतखेड्डं नालियाखेड्ड पत्तच्छेज्जं कडवच्छेज्जं सज्जीवं निज्जीवं सउणरूयमिति बावत्तरिकलाओ सेहा विस्ता सिक्खावेत्ता अम्मा पाँ उवहिति । ) तणं तस्म दढप इण्णस्स दारगस्स श्रम्मापियरो तं कलायग्यिं विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थगंध मल्लालकारेण य सक्कारेहिति सम्माहिति सक्कारेत्ता सम्मणित्ता विउल जीवियारिहं पीइदाणं दलइत्ता पडिविसज्जेहिति । तए गं से दढपइण्णे दारए वावत्तरिकला पंडिए नवंगसुत्तपडिबोहिए अट्टारसदेसी भासा विसारए गीर गंधव्वं कुसले, हयजोही गयजोही रहजोही बाहुजोही बाहुप्पमद्दी वियालचारी साहसिए प्रलंभोग समत्थे यावि भविस्सई ।" गंगाकूल के वानप्रस्थ तापसों का अच्छा विवरण देते हुये सन्निवेश के परिव्राजक के सम्बन्ध में लिखा गया है कि आठ ब्राह्मण परिव्राजक और प्राठ क्षत्रिय परिव्राजक हुये और उन्होंने वेद प्रादि ब्राह्मण शास्त्रों को पढ़ा- यह विवरण भी महत्व का होने से नीचे दिया जा रहा है। इससे परिव्राजकों के प्रकार उनके नाम, एवं ब्राह्मण शास्त्रों का अच्छा परिचय मिलता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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