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डा. हरीन्द्र भूषण जन
पतिराज, समाधि और प्रसाद गुण के धनी यास्यावरकवि राजशेखर, अपनी अलौकिक रचना से कवियों को विस्मय उत्पन्न करने वाले महेन्द्रसूरि, मदान्ध कवियों के मद को चूर्ण करने वाले 'ललित त्रैलोक्य सुन्दरी' के कथाकार कविरुद्र तथा सहृदयाह्लादक सूक्तियों के रचयिता, रुद्रतनय कवि कर्दमराज ।'
धनपाल की यह कवि प्रशस्ति तथा उसके साथ, अपने आश्रयदाता श्री मुञ्ज तथा भोज के वंश एवं पूर्वजों की प्रशस्ति के रूप में लिखे गए पद्य, साहित्य और इतिहास, दोनों दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं । धनपाल की कवि प्रशस्ति सम्बन्धी पद्य, आज तक विद्वज्जनों में बड़े आदर के साथ स्मरण किए जाते हैं ।
तिलकमञ्जरी, ११ वीं शताब्दी के सांस्कृतिक एवं सामाजिक इतिहास की दृष्टि से आलोचनीय ग्रन्थ है । इसमें तत्कालीन समाज एवं कला-कौशल का बड़े ही अाकर्षक ढंग से वर्णन किया गया है। यह ग्रन्थ जैन कथा साहित्य तथा जैन संस्कृति की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है।
धनपाल का व्यक्तित्व-संस्कृत साहित्य के पुरातन तथा आधुनिक विद्वान इस बात से पूर्ण सहमत हैं कि धनपाल ने बाण की गद्यशैली का सफल प्रतिनिधित्व किया है। कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्र तो धनपाल के पाण्डित्य से अत्यन्त प्रभावित थे। जिनमण्डन गणिकृत 'कुमारपाल प्रबन्ध' में कहा गया है कि एक समय हेमचन्द्र ने धनपाल की ऋषभ पञ्चाशिका के पद्यों द्वारा भगवान् प्रादिनाथ की स्तुति की। राजा कुमारपाल ने उनसे प्रश्न किया कि-'भगवन् ! आप तो कलिकाल सर्वज्ञ हैं फिर दूसरों की बनाई गई स्तुति के द्वारा क्यों भगवान् की भक्ति करते हैं ?' इस पर हेमचन्द्र बोले-'कुमारदेव ! मैं ऐसी अनुपम भक्ति भावनाओं से प्रोत-प्रोत स्तुतियों का निर्माण नहीं कर सकता।' २
हेमचन्द्र ने अपनी रत्नावली नामक देसी नाममाला में प्रसिद्ध कोशकारों का उल्लेख करते समय धनपाल को सबसे प्रथम स्थान दिया है।
- संस्कृत साहित्य के योरोपीय विद्वान् एवं प्रसिद्ध समालोचक श्री कीथ महोदय ने लिखा है कि'धनपाल ने बाण का सफल अनुकरण किया है । समरकेतु के प्रति तिलकमंजरी के प्रेम का वर्णन करने में उनका स्पष्ट रूप से यही लक्ष्य रहा है कि कादम्बरी के समान अधिकाधिक चित्र खींचे जा सकें।४ श्रीबलदेव उपाध्याय, एच. आर. अग्रवाल, डा. रामजी उपाध्याय और वाचस्पति गैरोला प्रभृति संस्कृति के आधुनिक विद्वान् भी कीथ महोदय के कथन को पूर्ण समर्थन करते हैं । ५
हात.००८५४.
१-वाचस्पति गैरोला, 'संस्कृत साहित्य का इतिहास' पृ० ६३४. २-'श्री कुमार देव ! एवंविधसद्भूतभक्तिगभस्तुतिरस्माभिः कतुं न शक्यते' ३-डा. जगदीशचन्द्र जैन–'प्राकृत साहित्य का हास', ४–'संस्कृत साहित्य का इतिहास'-कीथ (अनुवादक डा० मंगलदेव शास्त्री) पृ० ३६१ ५-बलदेव उपाध्याय, 'संस्कृत साहित्य का इतिहास' १६४५, पृ० २६८. एच० आर० अग्रवाल, Short
History of Sanskrit Literature' लाहोर, पृ० १५६. डा० रामजी उपाध्याय, संस्कृत साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' पृ० १७५ वाचस्पति गैरोला---'संस्कृत साहित्य का इतिहास' पृ० ६३४.
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