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डॉ० हरीन्द्र भूषण जैन
बाण का परिसंख्यालंकार के पश्चात् दूसरा प्रिय अलंकार विरोधाभास है जिसके सैकड़ों उदाहरण कादम्बरी में प्राप्त हैं । धनपाल भी विरोधाभास के लिखने में परम प्रवीण प्रतीत होते हैं -- (मेघवाह्न राजा का वर्णन हैं ) - सौजन्यपरतन्त्रवृत्तिरप्यसौजन्ये निषण्णः, नलप्रयुप्रभोप्यनलप्रथुप्रभः समिद्व्यतिकरस्फुरित प्रतापोऽप्यकृशानु भावोपेतः सागरान्वयप्रभवोऽप्यमृतशीतल प्रकृति: शत्रुध्नोऽपि विश्रुतकीर्ति, शेष शक्त्युपेतोऽपि सकलभूभार धारण क्षमः, रक्षिताग्विलक्षिति तपोवनोऽपि त्रातचतुराप्रमः ( तिलक०
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पराग० ६२-६३ )
तिलकमञ्जरी की विशेषतायें - बाण ने कादम्बरी में कथा के सम्बन्ध में अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा है - निरन्तर श्लेष घनाः सुजातयः' (काद० पद्य ह ) अर्थात् गद्य काव्य रूप कथा को श्लेषालंकार की बहुलता से निरन्तर व्याप्त होना चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि धनपाल के समय में कथा की निरन्तरश्लेषघकता' के प्रति लोगों की उपेक्षा हो चली थी । यही कारण है कि धनपाल ने तिलकमंजरी में ( पद्य नं० १६ ) में लिखा कि 'नातिश्लेषघना' श्लाघा कृतिलिपिरिवाश्नुते --' अर्थात् अधिक श्लेषों के कारण घन ( गाढ़बन्ध वाली ) रचना, श्लाघा को प्राप्त नहीं करती। उन्होंने यह भी लिखा है कि--- 'अधिक लम्बे और अनेक पदों से निर्मित समास की बहुलता वाले प्रचुर वर्णनों से युक्त गद्य से लोग घबड़ाकर ऐसे भागते हैं जैसे व्याघ्र को देखकर ' ( तिलक० पराग० पद्य नं० १५) । उनका यह भी कहना है कि--- 'गौडीरीति का अनुसरण कर लिखी गई, निरन्तर गद्य सन्तान वाली कथा श्रोताओं को काव्य के प्रति विराग का कारण बन जाती है अतः रचनाओं में रस की ओर अधिक ध्यान होना चाहिए' (तिलक० पद्म नं० १७-१८ )
धनपाल ने उपर्युक्त प्रकार से गद्य काव्य की रचना के सम्बन्ध में जो मत प्रकट किया है, • तिलकमञ्जरी, में उसका उन्होंने पूर्णरूप से पालन किया है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि, तिलकमञ्जरी ने, कादम्बरी की परम्परा को सुरक्षित रखते हुए भी गद्य काव्य को एक ऐसा नया मोड़ दिया है। जहां वह विद्वानों के साथ जन साधारण के निकट भी पहुंचने का प्रयत्न करता
दिखाई देता है ।
पन्यास दक्ष विजय गरिए ने दशकुमार, वासवदत्ता और कादम्बरी से तिलकमञ्जरी की विशेषता बताते हुए लिखा है कि ' दशकुमार चरित में पदलालित्यादि गुणों के होने पर भी कथाओं की अधिकता के कारण सहृदय के हृदय में व्यग्रता होने लगती है । वासवदत्ता में, प्रत्येक अक्षर में श्लेष, यमक, अनुप्रास आदि अलंकारों के कारण कथाभाग गौण तथा बिल्कुल अरोचक हैं । यद्यपि कादम्बरी उन दोनों से श्रेष्ठ है तथापि तिलकमञ्जरी कादम्बरी से भी श्रेष्ठ है, इस बात में थोड़ी सी भी प्रत्युक्ति नहीं । उदाहरणार्थ
१ - पुण्डरीक के शाप से चन्द्ररूप चन्द्रापीड़ के प्राणों के निकल जाने का वर्णन करने से कादम्बरी की कथा में आपाततः अमङ्गल है और इस कारण करुण विप्रलम्भ श्रृंगार इसका प्रधान रस है, किन्तु तलकमञ्जरी में प्रधान रस पूर्वरागात्मक विप्रलम्भ श्रृंगार है ।
२ - कादम्बरी में प्रगणित विशेषरणों के प्राडम्बर के कारण कथा के रसास्वाद में व्यवधान पड़ता है । तिलकमञ्जरी में तो परिगणित विशेषण होने के कारण वर्णन अत्यन्त चमत्कृत होकर कथा के आस्वाद को और अधिक बढ़ा देता है ।
१- तिलक० पराग०- प्रस्तावना पृ० १४-१६.
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